-दीपक दुआ... (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
सब से पहले तो यही बात साफ हो जाए कि इस फिल्म में ऐसा एक भी सीन या संवाद नहीं है जिस पर कोई भी समझदार आदमी एतराज कर सके। अब आप चाहें तो यह सवाल उठा सकते हैं कि जो लोग ऐसी फिल्मों पर एतराज करते हैं,
वे होते ही कितने समझदार हैं?
चलिए, बात आगे बढ़ाई जाए। हॉलीवुड से आने वाली फिल्मों में हमेशा यह दिखाया जाता है कि जब भी दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी किस्म की-आतंकवादियों से,
प्रकृति की तरफ से या यहां तक कि अंतरिक्ष की ओर से भी कोई मुसीबत आती है तो कोई न कोई अमेरिकी हीरो ही उससे निबटता है और दुनिया को बचाने का महान काम करता है। कमल हासन ने अपनी इस फिल्म से हॉलीवुड की इस महानता को चुनौती दी है क्योंकि इस फिल्म का हीरो भारतीय है और अमेरिका को बचाने के उसके मिशन में अमेरिकी पुलिस, एफ.बी.आई. वगैरह-वगैरह उसके सहयोगी हैं।
विश्वनाथ न्यूयॉर्क में कथक सिखाता है। पर जब उसकी न्यूक्लिर साईंटिस्ट पत्नी के कहने पर उसके पीछे लगा जासूस जब कुछ लोगों के हाथों मारा जाता है और वे पति-पत्नी को उठा लेते हैं तब यह असलियत सामने आती है कि विश्वनाथ असल में मुसलमान है और अफगानिस्तान में जेहादियों के साथ काम कर चुका है। क्या है उसका असली चेहरा और अब वह न्यूयॉर्क में क्या करने वाला है?
वे कौन लोग हैं जिन्होंने इन्हें उठाया और उनका मकसद क्या है? इन सवालों के जवाब यहां दे दिए तो आप इस फिल्म को मजे लेकर नहीं देख पाएंगे और आपका मजा किरकिरा हो, यह अपना मकसद नहीं है।
हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान है-इस अवधारणा को पिछले डेढ़-दो दशक में हॉलीवुड की फिल्मों ने जिस तरह से पोसा उसके बाद कई देशों में इस थीम पर फिल्में बनीं। कमल हासन की यह फिल्म उनसे अलग भले न हो,
इस मायने में उनसे बेहतर जरूर है कि यह मनोरंजन के मसालों में लिपटी होने के बावजूद अफगानिस्तान के हालात और जेहादियों की कार्यप्रणाली को गहराई से देखती और दिखाती है। इसे किसी गंभीर संदेश देती फिल्म की बजाय एक स्पाई थ्रिलर के तौर पर देखें और स्वीकार करेंगे तो यह ज्यादा आनंद भी देगी। वैसे आप चाहें तो इसकी पटकथा में कई सारी अतार्किक चीजें तलाशें या फिर इसमें हॉलीवुड की आर्नोल्ड श्वार्जनेगर वाली 1994 में आई ‘ट्रू लाईज’
के अक्स ढूंढें, यह आपकी मर्जी।
कमल हासन हर बार की तरह अपनी एक्टिंग से चौंकाते हैं। उनकी पत्नी बनी पूजा कुमार सरप्राइज पैकेज हैं तो वहीं जासूस बन कर दो-तीन सीन में आए संवाद लेखक अतुल तिवारी भी असर छोड़ते हैं। लंबे समय बाद एक्टिंग में लौटे शेखर कपूर के हिस्से कुछ खास न आने के बावजूद वह सराहनीय रहे। राहुल बोस,
नासिर जैसे मंजे हुए कलाकारों के बीच जयदीप अहलावत भी अपनी मौजूदगी का सशक्तता से अहसास कराते हैं।
फिल्म की परत दर परत खुलती कहानी और सामने आती सच्चाइयां लगातार रोचकता बनाए रखती हैं। कमल की फिल्मों में अक्सर एक अंडर करंट कॉमिक पुट रहता है जो यहां भी है और इसे नीरस नहीं होने देता। जब कहानी अफगानिस्तान पहुंचती है तो थोड़ी गंभीर बातें भी कहती है। एक किशोर जेहादी का आंखें बंद करके झूले पर झूलना और फिर अगले दिन मानव बम बन कर एक अमेरिकी टैंक को उड़ा देने वाला सीन मार्मिक भी है और काफी गहरा भी। नायक विश्वनाथ के मुसलमान होने और उसके असली चेहरे के जरिए कमल ने यह संदेश देने की भी कामयाब कोशिश की है कि पश्चिम की दादागिरी और वैश्विक मुस्लिम आतंकवाद की खींचतान में भारत और भारतीय मुसलमान ही बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स इस फ्लेवर की फिल्मों के मुकाबले कम दिलचस्पी वाला और हल्का है। अंत में इसका सीक्वेल लाने की घोषणा भी की गई है और इसे देखने के बाद आपको उसका इंतजार भी रहेगा।
अपनी रेटिंग-3.5 स्टार
(नोट-यह फिल्म 1
फरवरी,
2013 को रिलीज़ हुई थी और यह समीक्षा तब लिखी गई थी।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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