-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
एक ऐसा परिवार जिसने 1947 के बंटवारे के वक्त मज़हब और मुल्क में से मुल्क को चुना, उसकी
देशभक्ति पर आप कैसे उंगली उठा सकते हैं...?
यह कैसा तर्क हुआ? इसका
मतलब सन् 47 में पाकिस्तान न जाने वाले सारे मुसलमान ज़बर्दस्त देशभक्त हैं तो फिर पाकिस्तान छोड़ कर आने वाले सारे हिन्दू देशद्रोही ही हुए? भई,
वो भी तो अपने (हिन्दू) मज़हब के लिए अपना (पाकिस्तान) मुल्क छोड़ कर आए थे न...!
तो जनाब, ऐसे
खोखले तर्कों से अब आप मुल्क, मज़हब,
आतंकवाद, की बात करेंगे? मुमकिन
है, कुछ पल को आप कुछ लोगों को अपनी विचारधारा के साथ बहका-फुसला कर कुछ दूर तक ले भी जाएं लेकिन सुन लीजिए, जब
भी कोई संतुलित ज़ेहन से, निष्पक्ष
होकर फैसला करेगा तो वह आपको भी खुद से उतना ही दूर रखेगा, जितना
वह धर्म और जात के नाम पर नफरत फैलाने वालों को रखता है। हां, इस
बात पर अफसोस किया जा सकता है कि ऐसे लोग काफी कम हैं-इधर भी, उधर
भी।
बनारस में रहता एक इज़्ज़तदार मुस्लिम परिवार। हिन्दू पड़ोसी। यहां तक कि परिवार की बहू भी हिन्दू। इसी परिवार का एक लड़का गलत रास्ते पर निकल पड़ा। बम फोड़ा। पुलिस के हाथों मारा गया। ज़ाहिर है, लोगों
की नज़रें भी इनके प्रति बदलनी ही थीं। अब इन्हें साबित करना है कि ‘हम’
भी उतने ही देशभक्त हैं, जितने
कि ‘वो’।
फिल्म बताती है कि हमारा समाज अब ‘हम’
और ‘वो’ में
बंट चुका है जिनमें से ‘हम’
हमेशा सही होते हैं और ‘वो’
गलत। फिल्म इसी ‘हम’
और ‘वो’ की
खाई को पाटने की कोशिशें करती नज़र आती है। कमोबेश ये कोशिशें ईमानदार भी लगती हैं लेकिन इसे बनाने वालों के पूर्वाग्रह इसमें झलकते हैं और इसी वजह से यह फिल्म ठोस, वजनी,
पैनी और धारदार बनने से चूक जाती है।
‘सभी मुस्लिम आतंकवादी भले न हों, सभी
आतंकवादी मुस्लिम होते हैं’ की
थ्योरी हिन्दी फिल्मों में कोई नई नहीं है। कुछ साल पहले तक उग्र देशभक्ति के मसाले वाली फिल्मों की भीड़ इसी थ्योरी को ही भुना रही थी। धीरे-धीरे देश-समाज और उसके बरक्स फिल्म इंडस्ट्री में भी तथाकथित बुद्धिजीवी और सेक्युलर वर्ग उपजा और उसने इस विषय पर संजीदगी का मुलम्मा चढ़ा कर बात करनी शुरू की। यह फिल्म भी उसी संजीदगी को दिखाती है। लेकिन इसके लिए यह जिन बातों का सहारा लेती है, उनमें
समस्या के मूल कारणों की बजाय भाषण और उपदेश ज़्यादा हैं। मुस्लिम परिवार के लड़के के बहकने-भटकने की कोई पुख्ता वजह न बता पाने के कारण फिल्म की बुनियाद ही कमज़ोर रह जाती है। फिल्म कहती है कि आतंकवाद एक आपराधिक गतिविधि है, न
कि एक धार्मिक और गांधी को एक अपराधी ने मारा था न कि एक ब्राह्मण ने। तो यहां आकर फिल्मकार का यह तर्क भी खोखला हो जाता है कि एक लड़के के आतंकवादी हो जाने से उसका पूरा परिवार, उसकी
पूरी कौम देशद्रोही नहीं हो जाती, क्योंकि
आज भी इसी मुल्क में गांधी के हत्यारे को उसके हिन्दू होने से जोड़ा जाता है, कुछ
संगठनों और राजनीतिक पार्टियों पर ये आरोप लगाए जाते हैं कि उन्होंने (या उनसे जुड़े शख्स ने) गांधी को मारा था।
यह ठीक है कि हमारे मुल्क में हिन्दू और मुसलमान सदियों से मिल कर रहते आए हैं तो कभी-कभार आपस में लड़ते-भिड़ते भी आए हैं। लेकिन नफरतों के दरिया तो दोनों तरफ से बहे। जब जिसका पलड़ा भारी हुआ, उसने
हालात अपने कब्जे में कर लिए। तो फिर शिकायत का सुर एक ही तरफ से क्यों? अगर
हिन्दू बहुल मौहल्ले के एक मुस्लिम आतंकवादी के परिवार की तरफ कुछ लोगों की नज़रें टेढ़ी हुईं तो यह गलत है लेकिन अगर यही कहानी एक मुस्लिम मौहल्ले में रह रहे हिन्दू परिवार के किसी लड़के के हिन्दुत्व की तरफ ‘अतिसक्रिय’
होने की होती तो...?
कुछ भी नया न कहने के
बावजूद एक
कहानी के तौर पर फिल्म बुरी नहीं है। बल्कि इस तरह की कहानियां आती रहनी चाहिएं ताकि लगे कि सिनेमा वाले भी समाज पर नज़र रख रहे हैं। लेकिन जब शुरूआत से ही फिल्मकार इसमें नोटबंदी और स्वच्छ भारत अभियान पर टिप्पणियां करते हुए अपना निजी एजेंडा घुसाए, जब
वो मुस्लिम आतंकवादी को मारने वाले पुलिस अफसर को मुसलमान और सरकारी वकील को कट्टर हिन्दू दिखाए, जब
वो जान-बूझ कर फिल्म में किसी मुस्लिम कलाकार को न ले, जब
वो फिल्म में बार-बार आपको भाषण पिलाए, तो
समझिए कि वो भी आपका ब्रेनवॉश करने की फिराक में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगली बार अनुभव
सिन्हा ऐसे किसी विषय में ज़्यादा परिपक्वता के साथ हाथ डालेंगे।
फिल्म काफी जगह जबरन खिंचती हुई-सी लगती है। ‘जॉली
एल.एल.बी.’ में
अदालतों का असली रूप देखने के बाद भी अगर इस तरह की ‘फिल्मी’
अदालतें दिखाई जा रही हैं तो लगता है कि होमवर्क कम किया गया है। एक्टिंग के मामले में ऋषि कपूर अपने गैटअप के चलते ज़्यादा प्रभाव छोड़ पाते हैं। तापसी पन्नू कोर्ट के दृश्यों में असर छोड़ती हैं। प्रतीक बब्बर साधारण रहे। सहयोगी किरदारों में आने वाले कलाकार कहीं ज़्यादा जंचे। खासतौर से मनोज पाहवा ने गाढ़ा असर छोड़ा।
फिल्म दिखाती है कि मौहल्ले वाले इस मुस्लिम परिवार की हर हरकत का वीडियो बना रहे हैं। पर जब ये लोग अपने आतंकवादी बेटे की लाश लेने से इंकार कर देते हैं तब निर्देशक ने मौहल्ले वालों के मोबाइल छीन लिए थे क्या?
सच तो यह है कि जिस तरह से नफरत की आग लगाने वालों का मकसद अपनी रोटियां सेंकना होता है, उसी
तरह से कई बार भाईचारे की बात कहने वालों का मकसद भी उसी आंच में से अपने लिए कुछ हासिल करना होता है। ऐसे में बेहतर होगा, इन
ऊंचे दर्जे के बुद्धिजीवियों के लच्छेदार विचारों के झांसे में न आते हुए बमुश्किल दो-एक जगह आंखें नम करती इस वन टाइम वॉच फिल्म को देखें और खुद ही तय करें कि क्या सचमुच इस मुल्क की हवा इतनी गर्म है जितनी कुछ लोगों को अचानक से लगने लगी है? और
हां, यह फिल्म सत्यु की ‘गर्म
हवा’ बिल्कुल भी नहीं है... हो भी नहीं सकती।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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