-दीपक दुआ...
विनय तिवारी से मेरी पहली और अब तक की इकलौती मुलाकात तब हुई थी जब कुछ बरस पहले मुझे यू.पी. के बुलंदशहर में किसी नहर के किनारे टी.वी. पत्रकार से फिल्मकार बने विनोद कापड़ी की फिल्म ‘मिस टनकपुर हाज़िर हो’ की शूटिंग कवर करने के लिए बुलाया गया था। वहीं पता चला कि इस फिल्म के निर्माता विनय तिवारी की यह दूसरी फिल्म है और पहली वाली ‘मौहल्ला अस्सी’
अटकी पड़ी है। लेकिन उनका कहना था कि यह फिल्म भी बहुत जल्द आ जाएगी। लेकिन ऐसा न हो सका। लड़ाई-झगड़े,
कोर्ट-कचहरी जैसे टंटे बीच में आ गए। इस दौरान यह फिल्म किसी ने इंटरनेट पर लीक भी कर दी। इस बीच कई बार इस फिल्म के आने की सुगबुगाहट हुई लेकिन यह आ नहीं पाई। अब इस 16 नवंबर को यह रिलीज़ होने जा रही है। इस फिल्म और उनके सफर पर मैंने विनय तिवारी से बातचीत की। आप भी पढ़िए-
-दोनों ही चीजें हो रही हैं। इतने साल पहले जो सपना देखा था, जहां से सफर शुरू किया था,
वह मंजिल अब आने वाली है तो अच्छा भी लग रहा है और दिल में धुकधुकी भी है। हालांकि इतना यकीन है कि जो चीज हम लोगों ने बनाई है, वह बहुत अच्छी है और जो लोग सिनेमा में कुछ बढ़िया देखने के शौकीन हैं,
उन्हें यह जरूर पसंद भी आएगी।
-कुछ अपने सफर के बारे में बताएं। रियल इस्टेट के कारोबार से फिल्मों की तरफ कैसे आना हुआ?
-मेरा लखनऊ में रियल इस्टेट का बिजनेस था,
अभी भी है लेकिन शुरू से ही रचनात्मक चीजों और खासतौर से सिनेमा की तरफ मेरी रूचि रही है और यह मेरे मन में काफी पहले से था कि कभी मैं फिल्मों की तरफ जाऊं। तो मेरे एक दोस्त हैं उन्होंने मुझे मुंबई में कुछ लोगों से मिलवाया। उन्होंने ही डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी से मेरी मुलाकात करवाई तो मुझे पता चला कि उनके पास काशीनाथा सिंह जी के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ के राइट्स हैं जिस पर वह फिल्म बनाना चाहते हैं। मैं यह उपन्यास पढ़ चुका था और एक बार इसके लेखक काशीनाथ सिंह जी से भी मिल चुका था। उनसे मैंने इसके राइट्स भी मांगे थे लेकिन उन्होंने बताया था कि वह उसे पहले ही किसी और को दे चुके हैं। तो,
संयोग से मेरा डॉक्टर साहब से मिलना हुआ तो मैंने कहा कि आप बनाइए यह फिल्म,
मैं प्रोड्यूस करता हूं। डॉक्टर साहब का बनाया धारावाहिक ‘चाणक्य’ हो या उनकी फिल्म ‘पिंजर’, हम लोगों ने देखी है और उनकी प्रतिभा पर सबको भरोसा भी है तो,
मुझे यकीन था कि वह इस फिल्म को भी बहुत अच्छे से बनाएंगे और ऐसा हुआ भी है।
-किसी गैरफिल्मी पृष्ठभूमि से फिल्म इंडस्ट्री में आए निर्माता को मुंबई में बहुत सारे लोग दोस्त-दोस्त कह कर काटने में जुट जाते हैं। ऐसे कितने ‘दोस्त’ मिले आपको?
-(हंस कर) नहीं, नहीं... ऐसे कोई दोस्त नहीं मिले मुझे। होते हैं दो-एक लोग ऐसे भी हर जगह मगर मेरे साथ ऐसा कुछ खास नहीं हुआ। मुझे तो जो भी लोग मिले,
बहुत अच्छे मिले।
-लेकिन चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी के साथ आपके किसी विवाद की खबरें भी आई थीं?
-कोई ऐसा बड़ा विवाद नहीं था। वैचारिक या कहें कि रचनात्मक मतभेद ही थे और वे जरूरी भी होते हैं किसी चीज को बेहतर बनाने के लिए। जैसे वह नहीं चाहते थे कि फिल्म में गाने हों, लेकिन मेरा कहना था कि बनारस की पृष्ठभूमि पर फिल्म है और जो उसकी थीम है तो उसमें गाने होंगे तो वे ज्यादा असर करेंगे। तो,
बाद में उन्हें भी मेरी बात सही लगी और वह राजी हो गए।
-सेंसर बोर्ड से किस तरह का टकराव हुआ था?
-सेंसर ने तो इस फिल्म को सर्टिफिकेट देने तक से मना कर दिया था। उनका कहना था कि इसमें गालियां हैं,
धर्म की बात है,
मंदिर की बात है। हमारा कहना था कि जो भी है,
वह इस समाज से अलग थोड़े ही है। लेकिन वे लोग नहीं माने। तब हम लोग हाईकोर्ट गए। उन्होंने पूरी फिल्म देखी और सिर्फ एक छोटा-सा कट लगाया। बाकी पूरी की पूरी फिल्म वैसी है, जैसी बनी थी।
-यह फिल्म दिखाना क्या चाहती है,
किस तरह का मैसेज इसे देख कर मिलेगा?
-यह फिल्म काशी की उस संस्कृति के पतन की बात करती है जो वहां की पहचान हुआ करती थी और आज भी है। आपको इसे देख कर भरपूर मनोरंजन मिलेगा लेकिन साथ ही इसे देख कर आपकी सोच पर भी असर पड़ेगा। इसके ट्रेलर में एक संवाद है कि मैं बनारस को पिकनिक स्पॉट और गंगा को स्विमिंग पूल नहीं बनने दूंगा। यह एक बहुत अच्छा मैसेज इसमें से निकल कर आएगा और मुझे लगता है कि काशी को मान दिलाएगी यह फिल्म।
-‘काशी का अस्सी’ उपन्यास हो या फिर ‘मौहल्ला अस्सी’
का जो ट्रेलर आया है,
उसके बाद कुछ लोगों को इसमें बोली गई गालियों पर एतराज है। इसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
-देखिए, मैं यह नहीं कहूंगा कि गाली देना अस्सी की या बनारस की संस्कृति है। लेकिन जिसे लोग गाली समझ रहे हैं या गाली मान कर सुन रहे हैं, वह वहां की रोजमर्रा की भाषा का हिस्सा है। वहां लोग प्यार से, सम्मान से और अपनेपन से भी इन शब्दों का उपयोग करते हैं। जैसे दो करीबी दोस्त आपस में नहीं कह देते हैं, वैसे ही इसमें इन शब्दों का उपयोग किया गया है और मुझे विश्वास है कि जब लोग इस फिल्म को देखेंगे तो यही शब्द उन्हें गाली नहीं बल्कि इस फिल्म की भाषा का हिस्सा लगेंगे।
-सनी मेरे मन में काफी पहले से थे। सनी की जो इमेज रही है उससे हट कर उन्होंने कम ही काम किया है लेकिन मुझे हमेशा से लगता रहा कि वह इस तरह का किरदार कर सकते हैं। जब हम उनसे मिले तो उनकी भी ख्वाहिश थी कि कुछ ऐसा हट कर करें कि लोग उन्हें उससे भी पहचानें। तो यह रोल उन्हें पहली ही बार में इतना पसंद आया कि वह फौरन राजी हो गए। लोग जब उन्हें देखेंगे तो उन्हें भी सनी इसमें बहुत अच्छे लगेंगे।
-लेकिन कुछ अर्सा पहले यह फिल्म इंटरनेट पर लीक हो गई थी,
उससे आपको कितने नुकसान की आशंका है?
-वह काफी पहले की बात है। मुझे नहीं लगता कि उससे कोई फर्क पडे़गा। वह काफी खराब क्वालिटी का प्रिंट था और वैसे भी जो लोग अच्छा सिनेमा देखना चाहते हैं, अच्छी कहानियां देखना चाहते हैं,
उन्हें थिएटरों में ही जाना पसंद है। मुझे उम्मीद है कि 16 नवंबर को जब यह फिल्म रिलीज होगी तो थिएटरों में इसका स्वागत होगा।
-मगर जिन विनोद कापड़ी जी को आपने बतौर निर्देशक ‘मिस टनकपुर हाजिर हो’ से पहला मौका दिया, अब उन्हीं की फिल्म ‘पीहू’ 16 नवंबर को आपकी फिल्म से टकरा रही है?
-हां, लेकिन यह सिर्फ एक संयोग मात्र है। विनोद आज भी मेरे दोस्त हैं और वह मेरी फिल्म के बारे में हर जगह बोल भी रहे हैं। यह सब तो यहां चलता ही रहता है। वैसे भी ये दोनों फिल्में बिल्कुल ही अलग-अलग मिजाज की हैं तो ऐसी कोई फिक्र वाली बात नहीं है,
न उनकी फिल्म के लिए और न ही मेरी फिल्म के लिए।
-इसके अलावा और क्या कर रहे हैं?
-काम लगातार चल रहा है। इन दो फिल्मों के अलावा मैंने दो टी.वी. सीरियल भी बनाए जिन्हें काफी पसंद किया गया। इनमें से एक सहारा वन के लिए ‘आखिर बहू भी बेटी होती है’
था और दूसरा ‘गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा’
डी.डी. किसान के लिए बनाया था। दो सीरियल अभी बनने जा रहे हैं और एक फिल्म बहुत जल्दी अनाउंस करने जा रहा हूं। अब यहां आ गया हूं तो हार मान कर वापस नहीं जाऊंगा, यह तय है।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए
हैं।)
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