बनना कुछ चाहते थे, बन कुछ गए। या फिर करना कुछ और चाहते थे और कर कुछ और रहे हैं। इस आइडिया पर हिन्दी फिल्में बनाने वाले ‘व्यापारी’ हमें इतना कुछ परोस चुके हैं कि अब इस आइडिया के नाम से ही कोफ्त होने लगती है। लेकिन इमित्याज अली कुछ लेकर आएं तो लगता है कि उसमें कुछ अलग होगा। माल अलग नहीं हुआ तो उसे परोसने का अंदाज ही अलग होगा। इस फिल्म में वही है। कहानी पुरानी अंदाज नया। मगर क्या यह अंदाज रोचक भी है? कत्तई नहीं।
भटकी हुई सोच वाले युवाओं की कहानियां ‘3 ईडियट्स’, ‘लव आज कल’, ‘वेकअप सिड’, ‘यह जवानी है दीवानी’, ‘रॉकस्टार’ जैसी ढेरों फिल्मों में होने के बावजूद ये तमाम फिल्में न सिर्फ अच्छी थीं बल्कि सफल भी। लेकिन तमाशा के साथ ऐसा नहीं है। प्रयोगधर्मी होने का धर्म निभाते-निभाते इम्तियाज खुद को दर्शकों की सोच से इतना दूर ले गए कि हैरानी होती है कि इस फिल्म से जुड़े ढेरों लोगों ने इसे बनाने के बाद क्या एक बार भी नहीं देखा होगा? और अगर देखा होगा तो क्या किसी ने इम्तियाज से सच नहीं कहा होगा कि उन्होंने यह क्या बना दिया है? और अगर नहीं कहा होगा तो यकीन मानिए हमारे सिनेमा वाले अभी भी अपने रचे अंधे और अंधेरे संसार में ही जी रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि इस फिल्म को सिरे से नकारा जा सकता है। कहानी के घुमाव ‘कहीं-कहीं’ अच्छे लगते हैं। रुटीन ढर्रे पर चल रही मशीनी जिंदगी को ही सफलता का पैमाना समझने वाली युवा पीढ़ी चाहे तो इस फिल्म से सीख ले सकती है। फिर रणबीर और दीपिका की एक्टिंग और उनकी आपसी कैमिस्ट्री भी बांधती है। ए.आर. रहमान के संगीत में इरशाद कामिल के गाने भी खूब लुभाते हैं। लेकिन दिक्कत यही है कि इम्तियाज अली के कन्फ्यूज़न भरे प्रेजेंटेशन ने सारा गुड़, गोबर कर दिया है। काश, इम्तियाज ने इसे नाटक ही रहने दिया होता लेकिन अब यह नौटंकी है। वैसे, पता नहीं क्यों मुझे ऐसा भी लगा कि यह कहानी इम्तियाज ने कहीं खुद की जिंदगी से प्रेरित होकर तो नहीं लिखी। खैर, जो भी हो, बहुत ही एक्सपेरिमैंटल किस्म के सिनेमा का शौक हो तो इस फिल्म पर पैसे खर्चे जा सकते हैं।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(नोट-2016 में अपना ब्लॉग शुरू करने से पहले बरसों तक अपन यहां-वहां फिल्म-रिव्यू करते रहे हैं। वे तमाम रिव्यू अपने पास सुरक्षित हैं। कोशिश है कि उन्हें एक-एक करके सामने लाया जाए। 2015 में 27 नवंबर को आई फिल्म ‘तमाशा’ का तब लिखा यह रिव्यू वैसे का वैसा पेश है।)
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