एक बंद फ्लैट। दो साल की पीहू। पापा घर पर नहीं हैं और मां कुछ गोलियां खाकर मर चुकी है। घर में हर तरफ खतरा ही खतरा और इन खतरों से दो-चार होती पीहू। जलती हुई इस्त्री पर कपड़ा फेंकती पीहू। माइक्रोवेव में रोटी गर्म करती पीहू। फ्रिज में घुस कर खुद को अंदर से बंद करती पीहू। गैस जलाती पीहू। गीजर ऑन करती पीहू। बाल्कनी की रेलिंग पर चढ़ती पीहू। फिनाइल को दूध समझ कर पीती पीहू। नींद की गोलियां खाती पीहू। बिजली के नंगे तारों के बीच रहती पीहू।
यह फिल्म कदम-कदम पर आपको दहलाती है। एक तरफ आप पीहू के मासूम चेहरे और उसकी बालसुलभ हरकतों पर मोहित होते हैं और वहीं यह देखने-जानने की उत्सुकता लगातार बनी रहती है कि अब पीहू किस खतरे का सामना करेगी और उस खतरे से कैसे निबटेगी। एक तनाव है इस फिल्म में,
जो पहले सीन से बनना शुरू होता है और लगातार बढ़ता चला जाता है। कई जगह तो आप अपनी सीट से उचक कर पीहू को सलाह देना चाहते हैं कि बेबी नहीं, यह मत करो,
पीछे हट जाओ। कहने को यह फिल्म यही सब दिखाती है लेकिन अपने अंतस में यह असल में हमें आज का वो शहरी रहन-सहन दिखाती है जहां लोगों ने घरों में सुविधाएं तो भरपूर जुटा ली हैं लेकिन आपसी रिश्तों से सुख लापता हो चुका है। इकलौती बेटी के जन्मदिन पर पिता मसरूफ है,
पति-पत्नी के बीच शक की खाई है,
पड़ोसी को पड़ोसी की न तो परवाह है,
न ही खबर।
निर्देशक विनोद कापड़ी ‘मिस टनकपुर हाजिर हो’ के बाद अपनी इस दूसरी फिल्म में ज़्यादा संजीदगी, गहराई और पैनापन दिखाते हैं। सिर्फ एक किरदार वाली इस किस्म की कहानी चुनने का जोखिम उठाने के लिए उनके अलावा फिल्म के निर्माता भी बधाई के पात्र हैं। विनोद फिल्म में ज़्यादातर समय बांधे रखते हैं। छोटी-सी बच्ची से मनचाहा काम और इमोशंस निकलवाने का काम उनके लिए सचमुच दुरुह और धैर्य से भरपूर रहा होगा। योगेश जानी का कैमरा भी भरपूर खेल करता है। फिल्म की एडिटिंग कसी हुई है। विशाल खुराना का बैकग्राउंड म्यूज़िक कई जगह दृश्यों का असर गाढ़ा करता है। हालांकि कुछ एक जगह यह हल्का भी रहा है। फिल्म का अंत थोड़ा और शॉकिंग हो सकता था-नेगेटिव या पॉज़िटिव, दोनों तरह से।
पीहू के किरदार में दिखीं मायरा विश्वकर्मा बेहद प्यारी और मासूम लगी हैं। पीहू की आवाज़ जिसने भी डब की है, बहुत बढ़िया की है। पीहू के मम्मी-पापा के किरदार में मायरा के असल माता-पिता के होने से फिल्म का कलेवर और ज़्यादा विश्वसनीय हुआ है। इस किस्म की फिल्में थिएटरों पर भले ही कब्ज़ा न जमा पाएं, ज़ेहन पर कब्ज़ा ज़रूर जमा लेती हैं। यही इनकी सफलता है।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए
हैं।)
Is movie ka intezar mujhe bhi hai...Thank u so much sir
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