बॉबी (कंगना रानौत) अकेली रहती है। बचपन के एक हादसे के चलते वह थोड़ी हटेली किस्म की है। फिल्मों की डबिंग करती है और खुद को उन किरदारों जैसा समझ कर उन जैसे गैटअप में तस्वीरें भी खिंचवाती है। अपने घर में किराए पर रहने आए केशव और रीमा की ज़िंदगी में दखल देती है। एक हादसे में रीमा मर जाती है। बॉबी कहती है कि उसके पति केशव ने ही उसे मारा है जबकि हालात बॉबी की तरफ इशारा करते हैं। सच क्या है? दो साल बाद वह अपनी कज़िन मेघा के पास लंदन जाती है तो पाती है कि केशव अब मेघा का पति है। बॉबी के वहां पहुंचते ही कुछ हादसे होने लगते हैं। कौन है इसके पीछे, बॉबी, केशव या कोई और...?
मैंटल या मानसिक तौर पर कमज़ोर, पगले-अधपगले किरदारों को मुख्य भूमिका में लेकर कहानियां कहने का चलन आम फिल्मों में नहीं दिखता। यह फिल्म आम है भी नहीं। यह बताती है कि बॉबी के बचपन का वह हादसा उसकी मौजूदा मानसिक दशा का कारण है। इसी दशा के चलते उसे भ्रम होते हैं, वह अजीब तरीके से बर्ताव करती है। लेकिन वह पागल नहीं है। उसकी यही दशा ही उसे सही रास्ता भी बताती है। फिल्म असल में ऐसे लोगों के अंतस में झांकने का काम करती है जो दूसरों की तरह नॉर्मल नहीं है। इसके लिए जिस तरह से फिल्म में कैमरे, लाइटिंग,
रंगों और बिंबों का इस्तेमाल किया गया है, वह इसे सिनेमाई शिल्प की दृष्टि से एक अलग मकाम पर ले जाता है। इस कहानी को आम तरीके से भी कहा-दिखाया जा सकता था। लेकिन तब यह एक आम फिल्म बन कर रह जाती-न कुछ नया कहती, न नया दिखाती।
अपने मिज़ाज से यह फिल्म एक डार्क साइक्लॉजिकल थ्रिलर है जो कभी कॉमेडी तो कभी मर्डर-मिस्ट्री की राह पकड़ लेती है। तेलुगू फिल्मों से आए निर्देशक प्रकाश कोवेलामुदी जिस तरह से इसे एक अलग और एक्सपेरिमैंटल तरीके से ट्रीट करते हैं, वह डिस्टर्ब करता है। यही इस फिल्म की सफलता है कि यह आपको सुकून नहीं देती। हर फिल्म ऐसा करे, यह ज़रूरी भी नहीं। राइटर कनिका ढिल्लों अंत तक सस्पैंस को बखूबी छुपाए रख कर आखिर में प्रभावी तरीके से सामने लाती हैं। हालांकि फिल्म में कुछ चीजें गैरज़रूरी भी लगती हैं, जिनसे बचा जाता तो यह और कसी हुई बन सकती थी। गाने कुछ खास असर नहीं छोड़ पाते। हां, बैकग्राउंड म्यूज़िक ज़रूर फिल्म के प्रभाव को और फैलाता है।
कंगना रानौत ने बॉबी के किरदार को इस कदर विश्वसनीय बना दिया है कि लगता ही नहीं कि वह एक्टिंग कर रही हैं। मन यकीन करने लगता है कि कंगना असल में भी ऐसी ही होंगी-थोड़ी हटेली किस्म की। राजकुमार राव, बृजेंद्र काला, सतीश कौशिक, ललित बहल, अमृता पुरी जंचे हैं। अमायरा दस्तूर ग्लैमर की खुराक परोसती हैं, हुसैन दलाल कॉमेडी की। कुछ देर को आए जिमी शेरगिल प्यारे लगते हैं।
कुल मिला कर यह आम सिनेमा की लीक से हट कर बनी एक ऐसी एक्सपेरिमैंटल फिल्म है जो हर किसी को नहीं भाएगी। इसे पसंद करने के लिए आपको खुद थोड़ा हटेला बनना पड़ेगा। थकेले किस्म का सिनेमा देख कर पकेले हो चुके लोगों को ही इसमें मज़ा आएगा। आम चूसने वाले कहीं और जाएं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
हमें तो पसंद ही हटेली फिल्में हैं 😂
ReplyDeleteबेहतरीन रिव्यु लिखा है आपने सर
ReplyDeleteबहुत खूब। काफी सटीक विश्लेषण है।
ReplyDeleteबहुत खूब। काफी सटीक विश्लेषण है।
ReplyDeleteबहुत खूब परिचय कराया फ़िल्म से. उत्सुकता बढ़ गई है. हटकर बनी फ़िल्में तो मुझे यूं भी प्रिय हैं. देखते हैं ज़रूर :)
ReplyDeleteWill see the film...thanks..for this review
ReplyDeleteलोग वकवास बता रहे थे इसलिए देखी नही अब मन करता देख ही लेना चाहिए।
ReplyDeleteI could not resist commenting. Very well written!
ReplyDelete