Friday, 24 March 2017

रिव्यू-सब्र का इम्तिहान लेती ‘फिल्लौरी’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
शादी करने के लिए कनाडा से अपने घर अमृतसर आए लड़के का मांगलिक दोष दूर करने के लिए पहले उसकी शादी एक पेड़ से कर दी जाती है। लेकिन उस पेड़ पर तो एक भूत (दरअसल भूतनी) रहती है। तो हो गई उस लड़के की उस भूतनी से शादी। अब वह पेड़ तो गया कट और भूतनी गई उस लड़के के पीछे-पीछे उसके घर। अब क्या हो?

यहां तक कि कहानी तो इस फिल्म के ट्रेलर में भी समझ आती है। दरसअल वह भूतनी कभी फिल्लौर गांव की लड़की शशि थी। वह कैसे भूत बनी और अपनी किस अधूरी इच्छा की खातिर अभी तक भटक रही है, यह आगे की कहानी में बताया गया है। अंत में जाकर जब रहस्य खुलता है तो सिर्फ हम चौंकते हैं बल्कि भावुक भी होते हैं। पर क्या इतने भर से यह फिल्म तारीफ के काबिल बन जाती है?

फिल्म में दो कहानियां साथ-साथ चलती हैं। आज के वक्त में शादी को लेकर कन्फ्यूज्ड कनन-अनु की और बीते वक्त में फिल्लौरी की। अन्विता दत्त की कहानी में दिक्कत नहीं है। गांव के आवारा गवैये को सही रास्ते पर लाने वाली फिल्लौरी आज के वक्त में भी नायक को सही राह चुनने में मदद करती है। साथ ही फिल्लौरी के अतीत से जुड़ा सच भी दिलचस्प है लेकिन दिक्कत यह है कि फिल्म कुछ कहती नहीं है। इसमें ऐसा कुछ नहीं दिखता जो इससे दिल लगाने को उकसाता हो। हालांकि शादी वाले घर की हंसी-ठिठोली, रंगीनियां अच्छी लगती हैं मगर कुछ ठोस बात के अभाव में फिंल्म असरदार नहीं रह पाती।

उस पर से रही-सही कसर इसके ढीले निर्देशन ने पूरी कर डाली। निर्देशक अंशय लाल की भले ही यह पहली फिल्म है लेकिन इससे पहले वह कई सफल फिल्मों में सहायक निर्देशक रह चुके हैं। तो क्या उन्होंने फिल्म को कसा हुआ बनाना नहीं सीखा? ढेरों ऐसे सीन हैं फिल्म में जिन्हें देख कर लगता है कि क्या डायरेक्टर कटकहना भूल गया या उन्हें एडिटर के पास भेजना? अंत में आकर फिल्म एक दिलचस्प मोड़ लेती है मगर तब तक देखने वाले का सब्र जवाब दे चुका होता है और मन करता है कि प्रोजेक्टर रूम में जाकर फिल्म को फास्ट फारवर्ड कर दें। (आजकल तो यह भी संभव नहीं)

अनुष्का शर्मा जंची हैं लेकिन ज्यादा असरदार नहीं बन पाईं। दिलजीत दोसांझ प्रभावी रहे। सूरज शर्मा कई जगह बेवजह असमंजस में नजर आए। उनके चेहरे पर जरा और ताजगी होनी चाहिए थी। महरीन पीरजादा प्यारी लगीं और काम भी उनका अच्छा रहा। कुछ गाने अच्छे हैं, छूते हैं। पंजाब चाहे आज का हो या एक सदी पहले का, दारू में डूबा हुआ ही दिखता है फिल्म वालों को, क्यों भई?
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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