-दीपक दुआ...
स्वरा भास्कर से मैं बरसों से बात करता आ रहा हूं। मेरे लिए वह हमेशा एक फोन कॉल की दूरी पर रही हैं। बेहद काबिल, सौम्य और समझदार स्वरा और मैं अब तक कितनी बार बतियाए होंगे, यह गिन पाना मुश्किल है। हालांकि हम दोनों आमने-सामने सिर्फ दो बार मिले हैं और दोनों ही बार अविनाश दास के ‘सिने बहस तलब’ में। अब स्वरा उन्हीं अविनाश की फिल्म ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ में आ रही हैं। महीना भर पहले उनसे लंबी बातचीत हुई जिसके कुछ हिस्से ‘हरिभूमि’ में छपे और काफी सारे ‘रेल बंधु’ में। पूरी बातचीत यहां पढ़िए-
-‘अनारकली ऑफ आरा’ बिहार के आरा जिले की एक गायिका है जो आर्केस्ट्रा पार्टी में द्विअर्थी गाने गाती है। और जैसा कि इस तरह की गायिकाओं के साथ होता है, इसे भी बुरे चरित्र वाली समझा जाता है जबकि ऐसा है नहीं। हालात तब बिगड़ जाते हैं जब एक दिन अनारकली एक ताकतवर व्यक्ति के हाथों यौन प्रताड़ना का शिकार बनती है। लेकिन इसके बाद वह घुटने टेकने की बजाए उसके खिलाफ लड़ाई शुरू कर देती है।
-यह फिल्म कहना क्या चाहती है?
-यह फिल्म असल में यह मैसेज दे रही है कि समाज में हर व्यक्ति बराबर है और किसी के चरित्र को उसके काम से नहीं आंकना चाहिए। अगर कोई इंसान इस किस्म का काम करता है जो दूसरों की नजर में नीचा है या कमतर है या जिसे समाज अच्छी नजर से नहीं देखता है तो इससे लोगों को उसके चरित्र पर उंगली उठाने का हक नहीं मिला जाता।
-‘पिंक’ जैसी खुशबू है इस कहानी में?
-‘पिंक’ भी यही बात कर रही थी कि अगर कोई लड़की ‘न’ बोलती है तो उसका मतलब ‘न’ ही होता है। लेकिन उस फिल्म में जो लड़कियां हैं वे इस समाज की नार्मल लड़कियां हैं। ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ इस मायने में ज्यादा साहसी फिल्म है कि एक ऐसी लड़की की कहानी है जो नार्मल नहीं है, जो ज्यादातर लोगों की नजरों में शरीफ नहीं मानी जाती है, जिसके काम को ज्यादातर लोग हेय दृष्टि से देखेंगे। यह एक मुश्किल किरदार है क्योंकि यह लड़की बेचारी नहीं है। यह ‘द डर्टी पिक्चर’ की विद्या बालन के किरदार जैसा एक मुश्किल किरदार है क्योंकि यह एक ‘चालू’ किस्म की औरत का किरदार है जिसके साथ कोई हमदर्दी नहीं दिखाना चाहेगा।
-तो कितनी सफलता के साथ आप इस मुश्किल किरदार को निभा पाईं?
-हम कलाकारों के लिए यही सबसे खूबसूरत चुनौती होती है कि हमें करने के लिए कोई मुश्किल चीज मिले। इस लड़की का जो अंतर्द्वंद्व है, इसकी जो पीड़ा है, इसकी जो लड़ाई है उसे सामने लाने के लिए हमारी पूरी टीम ने बहुत मेहनत की और मुझे लगता है कि हम काफी सफल भी रहे हैं।
-अविनाश फिल्म इंडस्ट्री में बिल्कुल नए हैं। उन जैसे अनाड़ी निर्देशक के साथ फिल्म करने का जोखिम कैसे उठाया आपने?
-मैं थोड़ी पागल हूं न। मुझे ऐसी चीजें पसंद आती हैं जिन्हें करके मुझे रचनात्मक संतुष्टि मिले। मैं मानती हूं कि अविनाश जी के साथ काम करना जोखिम भरा था लेकिन उन्होंने इस फिल्म की इतनी प्रभावशाली स्क्रिप्ट लिखी थी कि मुझसे मना नहीं किया जा सका। अविनाश जी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि फिल्म की बेहतरी के लिए वह दूसरों से सुझाव और मदद लेने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। यह फिल्म करने के पीछे एक निजी वजह यह भी थी कि मेरी जड़ें भी बिहार से जुड़ी हुई हैं और हमारी फिल्मों में बिहार की जो कहानियां आती हैं उनमें अपराध, राजनीति, हिंसा आदि ही दिखाई जाती है जबकि इस फिल्म में एक सकारात्मक कहानी है कि एक लड़की ऐसे समाज में रह कर भी अन्याय के खिलाफ लड़ती है।
-यह फिल्म शुरू होने से पहले आपने जिक्र किया था कि अनारकली के किरदार में जो अश्लीलता और बोल्डनैस है उसे देखते हुए आप इसे करने से झिझक रही हैं। तो कैसा अनुभव रहा इसे करने का?
-यह किरदार इस मायने में बोल्ड था कि एक औरत जो अपनी रोजी-रोटी के लिए अश्लील किस्म के गाने गाती है और जिसे सभ्य समाज अच्छी नजर से नहीं देखता है। तो मुझे झिझक यह थी कि कहीं यह सी-ग्रेड बन कर न रह जाए। लेकिन यहां मैं निर्माता संदीप कपूर की तारीफ करना चाहूंगी कि उन्होंने अविनाश जी को जो टीम चुनने दी उम्दा सह-निर्देशक, संगीतकार, सिनेमाॅटोग्राफर और संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी जैसे कलाकार थे तो इन सबने मिल कर इस फिल्म को कहीं से भी दोयम दर्जे की नहीं बनने दिया।
-कुछ ऐसी ही चीज राजकुमार संतोषी की ‘लज्जा’ में भी तो थी?
-मुझे लगता है कि ‘लज्जा’ की दुनिया बहुत अलग थी। ‘लज्जा’ में माधुरी दीक्षित जी रामलीला में काम करती थीं जबकि अनारकली की गिनती सभ्य समाज में नहीं की जाती है और इसीलिए मैं बार-बार इस किरदार को एक मुश्किल किरदार कह रही हूं।
-मैं दो-तीन बार आरा गई। मैं ऐसी महिलाओं से मिली जो वास्तव में ऐसे गाने गाती हैं। मेरे पास उनके गानों की, उनसे बातचीत की रिकाॅर्डिंग हैं। आप शायद यकीन न करें कि अनारकली के सारे कास्ट्यूम की शाॅपिंग मैंने आरा से की। मैंने खुद को इस काम के लिए वही बजट दिया जो शायद अनारकली खुद को देती। दो-तीन सौ की साड़ी और 40-50 रुपए मीटर के कपड़े वाले सूट मैंने इस रोल के लिए बनवाए। लेकिन इन सबसे ऊपर सबसे बड़ी चीज होती है आपका अपने किरदार पर भरोसा। मुझे अनारकली पर, उसकी इस कहानी पर भरोसा था और इसी भरोसे ने ही मेरे काम को सहज बनाया। अविनाश जी के नए होने के कारण मुझे उन पर शक होना चाहिए था लेकिन उनकी लिखी स्क्रिप्ट ने मुझे इसका मौका ही नहीं दिया।
-24 मार्च को आपकी फिल्म के साथ अनुष्का शर्मा की ‘फिल्लौरी’ की टक्कर हो रही है। इस पर आप क्या कहेंगी?
-‘फिल्लौरी’ एक बहुत बड़ी फिल्म है और हमारी फिल्म उसके मुकाबले काफी छोटी है। इन दोनों में टक्कर का कोई सवाल ही नहीं है। मेरे मन में कोई कंपीटिशन नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि हर फिल्म की अपनी एक नियति होती है। मैंने ‘फिल्लौरी’ का ट्रेलर देखा है जो मुझे बहुत ही अच्छा लगा। अनुष्का शर्मा और दिलजीत दोसांझ मुझे बहुत ज्यादा पसंद हैं। मैं खुद इस फिल्म को देखना चाहती हूं और मैं चाहूंगी कि अनुष्का भी मेरी फिल्म देखें क्योंकि हम लोग एक ऐसी कहानी लेकर आ रहे हैं जिसे लाना ही अपने-आप में एक दुस्साहस है।
-इस साल आप और किन फिल्मों में नजर आएंगी?
-गौरव सिन्हा की एक कॉमेडी फिल्म ‘आपके कमरे में कोई रहता है’ में आऊंगी। यह एक कन्फ्यूजन से भरी कॉमेडी है जिसकी स्क्रिप्ट सुनते हुए मैं लगातार हंसती रही थी। इसमें मेरा किरदार एक शहरी कामकाजी लड़की का है जो बहुत सेंसिबल है लेकिन जब अपने पर पड़ती है तो उससे ऐसी-ऐसी बेवकूफियां होती हैं कि आप हंसते ही रह जाएंगे। इसके बाद मैं ‘वीरे दी वेडिंग’ की शूटिंग शुरू कर रही हूं जिसमें मेरे अलावा सोनम कपूर और करीना कपूर खान भी हैं। ये आज की सशक्त औरतों की कहानी है लेकिन इसमें कोई रोना-धोना नहीं मिलेगा।
-बड़े बजट की फिल्मों में आप हमेशा सपोर्टिंग रोल में रही हैं और मेन लीड के रोल आपको अलग किस्म के सिनेमा में मिले हैं। अपने कैरियर की इस तस्वीर को आप कैसे देखती हैं?
-यह बात सही है कि मेरी जो फिल्में ब्लॉकबस्टर हुईं उनमें मैं साइड रोल में थी लेकिन एक एक्टर को इन सब बातों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता और न ही पड़ना चाहिए। मुझे कोई गम नहीं है क्योंकि मैं जानती हूं कि ‘रांझणा’ में बिंदिया ही सबसे मजेदार कैरेक्टर थी या ‘प्रेम रतन धन पायो’ में चंद्रिका का किरदार काफी स्ट्रांग था। मैं खुश हूं ऐसे रोल करके। पर साथ ही मुझे यह भी लगता है कि अब मैं ऐसे मकाम पर पहुंच चुकी हूं जहां मुझे ऐसी फिल्में मिल रही हैं जिनकी कहानी मेरे इर्द-गिर्द है चाहे वह ‘निल बटे सन्नाटा’ हो या ‘अनारकली ऑफ़ आरा’।
-क्या आपको लगता है कि सिनेमा हमारे सामाजिक हालात बदलने में भी मददगार हो सकता है?
-सिनेमा हमेशा से मददगार रहता आया है। हर दौर में ऐसी फिल्में आती रही हैं, आ रही हैं और आएंगी जिन्होंने अपने मौजूदा हालात पर टिप्पणी की है, लोगों की सोच पर असर डाला है और उन्हें बदलने में सार्थक भूमिका निभाई है। मुझे लगता है कि सिनेमा में बहुत ताकत है। मैं इस बात में बिल्कुल यकीन नहीं करती कि सिर्फ फूहड़ दिखना और जिसे हम पॉपकॉर्न एंटरटेनमैंट कहते हैं, वही सिनेमा है। मेरे लिए सिनेमा के मायने एंटरटेनमैंट, एंटरटेनमैंट और एंटरटेनमैंट से काफी हट कर है।
No comments:
Post a Comment