Friday, 17 March 2017

रिव्यू-अलग है, उम्दा है ‘ट्रैप्ड’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
सोचिए, मुंबई की एक 40 मंजिला खाली इमारत की 35वीं मंजिल के एक फ्लैट में एक युवक अकेला फंस जाए। उसके पास बात करने को मोबाइल हो, लिखने के लिए पेन। बिजली, पानी। कुछ खाने को हो, पीने को। कोई औजार, हथियार। उसे तलाशने वाला कोई दोस्त, कोई यार। उसकी कोई सुनता हो, किसी को उसकी परवाह हो। बताइए, कैसे वह यहां से निकलेगा?

यह युवक दब्बू है। अपनी बात तक सही ढंग से नहीं कह पाता। बेहद साधारण व्यक्तित्व है उसका। यह तक नहीं समझ पाता कि एक वीरान बिल्डिंग में उसे यह फ्लैट नहीं लेना चाहिए। फिल्म दिखाती है कि उसके पास कुछ नहीं है, दोस्त-यार, परवाह करने वाले तक नहीं। ऐसे में बड़ी मुश्किल से जो लड़की उससे शादी करने को राजी हुई है, उसे खो देने के डर से वह इस फ्लैट को लेने की बेवकूफी करता है और फंस जाता है। पहले वह ऐसे हालात में फंसे किसी भी आम इंसान की तरह चीखता-चिल्लाता है, दरवाजा तोड़ने की कोशिश करता है लेकिन जब उसे लगता है कि कुछ भी कारगर नहीं हो रहा है तो वह बदलने लगता है। उसके व्यक्तित्व में आते बदलाव को हम साफ महसूस करते हैं। वह अपने अंदर के डर को जीतता है। कभी नॉन-वेज खाने वाला शख्स कबूतर मार कर खाता है। कभी चूहे से डरने वाला इंसान अब एक चूहे से दोस्ती कर लेता है और उससे बतिया भी रहा है।

कहानी का प्लॉट अच्छा है, हट के है और बड़ी बात यह कि फिल्म जो दिखाती है, उसकी आड़ में कुछ कहती भी है। मुंबई शहर में लोग ज्यादा हैं, लेकिन दोस्त नहीं। शोर ज्यादा है, किसी की सुनने वाला कोई नहीं। फिल्म बताती है कि कैसे शहरी लोग अपने खुद के खोल में इतने खोए हुए हैं कि उनके पास दूसरों से जुड़ने का तो वक्त है, ख्वाहिश।

इससे पहले भी निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणी उड़ानऔर लुटेराके जरिए अपनी प्रतिभा दिखा चुके हैं। लेकिन यह फिल्म उनके अंदर के निर्देशक को एक अलग ही मकाम पर ले जाती है। शौर्य की भूमिका में राज कुमार राव का काम बेहद प्रभावशाली है। अपने नाम के उलट वह अपनी भाव-भंगिमाओं, अटक-अटक कर बात करने की अपनी शैली और चेहरे की मुद्राओं से वह इस किरदार को विश्वसनीय बनाते हैं। साउंड रिकॉर्डिंग कमाल की है।

100 मिनट की इस फिल्म में कोई इंटरवल नहीं है। इसकी जरूरत भी नहीं थी। हालांकि फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। सरवाइवल थ्रिलरकी श्रेणी में आने वाली इस फिल्म को और ज्यादा दिलचस्प बनाया जा सकता था। कुछ ऐसा, जो देखने वाले को डराए, भयभीत करे। मगर अभी भी यह फिल्म डिस्टर्ब करती है, सोचने पर मजबूर करती है और यही इसकी सफलता है। पर्दे पर कुछ हट कर पसंद करने वाले इसे मिस करें।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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