-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
एक सीन देखिए-पाकिस्तानी आर्मी अफसर की बीवी बन कर भारत से गई लड़की वहां रह कर भारत के लिए जासूसी करती है। वहां के लोगों से घुलने-मिलने के लिए वह आर्मी स्कूल के बच्चों को गाना सिखाती है। एनुअल डे पर बच्चे गा रहे हैं-‘ऐ
वतन, वतन मेरे, आबाद
रहे तू... मैं जहां रहूं, जहां
में याद रहे तू...।’ उन
बच्चों, वहां मौजूद आर्मी अफसरों, उनके
परिवार वालों के चेहरों पर अपने मुल्क पाकिस्तान के प्रति गर्वीली चमक है। लेकिन ठीक उसी वक्त, ठीक
वही चमक, अपने
मुल्क भारत के प्रति वहां खड़ी उस लड़की के चेहरे पर भी है। और यहीं हमें पता चलता है कि क्यों आलिया भट्ट हमारे समय में मौजूद एक बेहतर अदाकारा हैं और कैसे वह खुद को डायरेक्टर के हाथों में सौंप कर खुद उस किरदार में तब्दील हो जाती हैं।
मेघना गुलज़ार को सिनेमा की जुबान में कहानी कहने का सलीका मालूम है। अपनी पिछली फिल्म ‘तलवार’ में
जिस तरह से वह बिना पक्षपाती हुए आरुषि तलवार हत्याकांड की परतों से होकर गुज़रीं, उसने
उन्हें एक अलग ही मकाम पर पहुंचा दिया। ‘राज़ी’ में
मेघना एक बार फिर अपने हुनर का असर छोड़ती हैं। इस फिल्म में ड्रामा ठूंसने, देशभक्ति
का ढोल पीटने और किसी एक पक्ष में जा खड़े होने की तमाम संभावनाओं के बावजूद इसमें ऐसा कुछ नहीं है। कहीं-कहीं तर्क छोड़ते एक-आध दृश्यों को नजरअंदाज करें तो यह फिल्म आपको एक सहज-सरल रास्ते पर सरपट लिए जाती है। भवानी अय्यर और मेघना अपनी स्क्रिप्ट में जरूरी तनाव, थ्रिल,
भावनाएं, मोहब्बत लाने में कामयाब रही हैं। फिल्म का अंत आपको अपने भीतर तक उतरता हुआ महसूस होता है।
आलिया भट्ट इस साल की बैस्ट अदाकारा की दौड़ में तगड़ी टक्कर देंगी। विकी कौशल अपने शांत किरदार में बेहद असरदार रहे हैं। सच तो यह है कि फिल्म के एक भी कलाकार ने कहीं भी कमतर काम नहीं किया है। आलिया के पिता बने रजत कपूर, मां
सोनी राज़दान, ससुर
शिशिर शर्मा, जेठ
अश्वत्थ भट्ट, जेठानी
अमृता खानविलकर, नौकर बने आरिफ ज़कारिया जैसे तमाम कलाकार अपने चरम पर दिखाई देते हैं। लेकिन बेशक इन सबसे एक कदम आगे रहे हैं खुफिया अफसर मीर बने जयदीप अहलावत। उनकी भाव-भंगिमाएं इस कदर विश्वसनीय हैं कि पर्दे पर उनकी मौजूदगी हर किसी पर भारी पड़ती है।

1971 के समय में एक हिन्दुस्तानी लड़की सहमत के एक पाकिस्तानी फौजी अफसर की बीवी बन कर जाने और वहां से महत्वपूर्ण खबरें भेजने की सच्ची कहानी पर लिखे गए उपन्यास ‘कॉलिंग सहमत’
पर आधारित यह फिल्म असल में सहमत के बरअक्स उन तमाम लोगों के अंतस में झांकने की कोशिश करती है जो पता नहीं किस जुनून में अपने मुल्क के लिए ऐसे खतरनाक काम करने के लिए राज़ी हो जाते हैं कि
अपनी इज़्ज़त व जान हथेली पर लेकर चल देते हैं एक अनजान जगह, अनजानों
के बीच।

फिल्म की रफ्तार और संपादन इसका एक और मजबूत पक्ष है। एक भी सीन आप मिस नहीं कर सकते। गुलज़ार के गीत कहानी का हिस्सा बन कर उसे न सिर्फ आगे ले जाते हैं बल्कि फिल्म को और गाढ़ा ही बनाते हैं। शंकर-अहसान-लॉय
का संगीत प्रभावी रहा है।

‘राज़ी’ जैसी
फिल्में बननी चाहिएं। ऐसी कहानियां कही जानी चाहिएं। ये हमारी सोच को उद्वेलित भले न करें, उसे
प्रभावित ज़रूर करती हैं। और ऐसी ही कहानियां सिनेमा को समृद्ध बनाती हैं। उनमें जान भरती हैं।
अपनी रेटिंग-चार स्टार
आखिरकार आ ही गयी ऐसी फिल्म जो चार सितारा पाकर गौरवान्वित हो गई है
ReplyDeleteइस समीक्षा से फ़िल्म से अपेक्षायें और बढ़ गयीं ।
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