-दीपक दुआ...
एक पहाड़ी शहर में एक पुरानी लाइब्रेरी। बूढ़ा लाइब्रेरियन। ढेरों पाठक। किताबों की संगत में सब खुश। वक्त बीतता है। लाइब्रेरी में अब कम लोग आते हैं। अंत में सिर्फ एक लड़की। एक दिन वो भी आना बंद कर देती है। लोग अब लैपटॉप, मोबाइल में मसरूफ हैं। उन्हें किताबों का साथ नहीं चाहिए। लाइब्रेरियन उस लड़की से मिलने जाता है। वह लौटती भी है। लेकिन...!
यह कहानी है एक शॉर्ट-फिल्म ‘किताब’ की जो बताती है कि अब लोग किताबों और लाइब्रेरियों से विमुख होते जा रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि किताबों की पुकार सुनाती यह फिल्म खुद मूक है। करीब 25 मिनट की इस फिल्म में सिर्फ बैकग्राउंड म्यूजिक और विज़ुअल्स के जरिए ही निर्देशक कमलेश के. मिश्रा ने अपनी बात को प्रभावी तरीके से रखा है। हां, दो-एक जगह कुछ कविताएं जरूर हैं जो इस प्रभाव को और गाढ़ा करती हैं। हालांकि यह भी सच है कि यह फिल्म किसी एक किताब की बजाय किताबों, या कहें कि लाइब्रेरियों से दूर होते लोगों की बात ज्यादा करती है और इस नज़रिए से देखें तो इसका नाम ‘किताब’ की बजाय ‘किताबें’ होता तो इसकी थीम से ज्यादा जुड़ पाता।
कुछ ही महीने पहले दिवंगत हुए अभिनेता टॉमऑल्टर ने बूढ़े लाइब्रेरियन के किरदार में खासा असर छोड़ा। अदाकारा पूजा दीक्षित भी अपने काम को बखूबी कर गईं। कैमरे और लाइटिंग से दृश्य-संयोजन प्रभावशाली बन पाया है। कमलेश के लेखन और निर्देशन की छाप फिल्म को जरूरी गहराई और ऊंचाई देती है। अंत में फिल्म भावुक करती है और एक पाॅज़िटिव नोट पर खत्म होती है।
दिल्ली के फिल्म्स डिवीज़न सिनेप्लेक्स में क्षमता से ज्यादा दर्शकों की मौजूदगी में हुए सारांश प्रोडक्शंस की इस फिल्म के प्रीमियर से पहले ‘इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के बढ़ते प्रभाव में किताबों का अस्तित्व’ विषय पर एक परिचर्चा हुई जिसमें लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने कहा, ‘किताब से बड़ा कोई साथी नहीं, कोई हमदर्द नहीं। किताब की संस्कृति बनी रहेगी चाहे कितने ही नए साधन आ जाएं क्योंकि हमारे सोचने के नजरिए को ताकत किताब से ही मिलेगी। किताबें जिंदा रहनी चाहिएं, जिंदा रहेंगी।’ इस मौके पर सुलभ स्वच्छता एवं सामाजिक सुधार आंदोलन के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक ने कहा, ‘गैजेट, किताब को रिप्लेस नहीं कर सकता। गैजेट पूरक हो सकते हैं लेकिन पढ़ने का जो आनंद, जो रस किताब से आता है, वह किसी और चीज से नहीं आ सकता। गैजेट को चलने के लिए कोई सहारा चाहिए होता है, किताबें बिना सहारे के चलती हैं।’
इस चर्चा में निर्देशक कमलेश के. मिश्रा ने कहा, ‘एक बार एक बड़ी लाइब्रेरी में नामी लेखकों की किताबों पर जमी धूल देख कर मुझे किताबों की पीड़ा, कराह सुनाई दी और तभी यह कहानी मेरे मन में आई और मैंने यह फिल्म बनाई।’ कमलेश बताते हैं कि इस फिल्म को कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सवों में सम्मानित किया जा चुका है और उनका इरादा है कि विभिन्न संस्थानों, लाइब्रेरियों में इसके शोज़ आयोजित किए जाएं ताकि लोग इसके बहाने किताबों से जुड़ सकें।
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