-दीपक दुआ...
देब मेढेकर मराठी हैं। लेकिन उनकी मां रवींद्रनाथ टैगोर को बांग्ला में पढ़ना चाहती थीं सो उन्होंने न सिर्फ बांग्ला सीखी और टैगोर को पढ़ा बल्कि अपने बेटे को भी एक बंगाली नाम दिया-देबाशीष। अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई के बाद पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से डायरेक्शन का कोर्स करके निकले देब ने बरसों तक विज्ञापनों की दुनिया में सक्रिय रहने के बाद अब बतौर निर्देशक अपनी जो पहली फीचर फिल्म ‘बायोस्कोपवाला’ बनाई है वह टैगोर की ही कहानी ‘काबुलीवाला’ से प्रेरित है। हाल ही में इस फिल्म का एक स्पेशल शो कुछ चुनिंदा लोगों के लिए दिल्ली में हुआ जहां देब से ये बातें हुईं-
-‘बायोस्कोपवाला’ से ही अपनी पारी की शुरूआत क्यों?
-पहली फिल्म कोई भी हो, वह आसान नहीं होती। मुझे इस फिल्म के प्रोड्यूसर सुनील दोशी ने इस कहानी के साथ अप्रोच किया था कि वो ‘काबुलीवाला’ को फिर से बनाना चाहते हैं। उनकी कहानी में काबुलीवाला अफगानिस्तान में रहता था जिसका अपना एक सिनेमा था जो तालिबान ने जला दिया। तब वो कोलकाता आ गया और यहां की गलियों में घूम-घूम कर बोयोस्कोप दिखाने लगा। इसके बाद की सारी स्क्रिप्ट मेरी खुद की है कि कैसे इस कहानी को उस लड़की मिनी के नजरिए से कहा जाए और कैसे इस कहानी को विस्तार दिया जाए।
-इस फिल्म के जरिए आप कहना क्या चाह रहे हैं?
-मुझे लगता है कि यह फिल्म अधूरी ज़िंदगियों की बात करती है। हम सब लोग कहीं न कहीं अधूरी-अधूरी ज़िंदगियां जी रहे हैं। कुछ न कुछ खालीपन हम सब के भीतर है। अब यह हमारी च्वाइस है कि हम ऐसे ही अधूरे-अधूरे जिएं और एक दिन खत्म हो जाएं या हम लोग कम से कम दूसरों की कहानी पूरी कर जाएं। यह लड़की मिनी यही चुनती है। वो अपने पिता की ख्वाहिश पूरी करने के लिए, काबुलीवाला की ख्वाहिश पूरी करने के लिए एक सफर करती है और उस सफर के जरिए वह असल में अपनी जर्नी पूरी करती है।
-मिनी के किरदार के लिए गीतांजलि थापा को लेने का फैसला कैसे हुआ?
-इस रोल के लिए मुझे असल में एक ऐसी लड़की चाहिए थी जो कमजोर भी हो और मजबूत भी। वह इतनी मजबूत हो कि अपने पिता से दूर रह सके, उनकी मौत पर बिना रोए रह सके। लेकिन वही लड़की काबुलीवाला के लिए रोए तो दर्शकों को अपने साथ रुला सके। मुझे एक ऐसी लड़की की कहानी दिखानी थी जिसकी जर्नी फिल्म के साथ-साथ चलती है और मैंने गीतांजलि को ‘लायर्स डाइस’ में देखा हुआ था तो मुझे वो इस रोल के लिए एकदम सही लगी।
-उन्हें लेने के पीछे भी हमारा वह रिसर्च था जो हमने इस फिल्म के लिए किया था। अफगानिस्तान में एक कौम है ‘हाज़रा’ जो उन एक हज़ार सिपाहियों से बनी जिन्हें चंगेज़ खान छोड़ कर गया था। ये लोग मूल रूप से मंगोलिया के थे और आप ध्यान दीजिए कि डैनी साहब के फीचर्स भी वैसे ही हैं। हमने उन्हें जब यह स्क्रिप्ट भेजी तो अगले ही दिन उन्होंने कॉल किया और बोले कि वो इस फिल्म को करने के लिए तैयार हैं।
-विज्ञापनों से फिल्मों तक के अपने सफर को आप कैसे देखते हैं?
-मुझे लगता है कि एडवरटाइजिंग ने ही मुझे सिनेमा की चुनौतियों को समझने और उनका सामना करने लायक बनाया है। वहां हम जो छोटी-छोटी बातें सीखते हैं, कम वक्त में एक पूरी कहानी कहना सीखते हैं वो हमें सिनेमा में काम आता है।
-हिन्दी के किन फिल्मकारों के काम से आप प्रभावित रहे हैं?
-मुझे लगता है कि अस्सी के दशक में वो जो एक अलग हटके वाला सिनेमा आ रहा था, वो मुझे प्रभावित करता है। भीमसेन खुराना, अमोल पालेकर, मृणाल सेन ने जो बनाया उसे देखते हुए मैं कहीं खो-सा जाता हूं। फिर इधर राम माधवानी की ‘नीरजा’ का भी मुझे पर काफी प्रभाव पड़ा।
-आगे क्या कर रहे हैं?
-अभी कुछ नहीं पता। बहुत सारी स्क्रिप्ट्स तैयार हैं। दिमाग में भी बहुत कुछ चल रहा है। लेकिन पहले यह फिल्म आ जाए, दर्शक और इंडस्ट्री मेरे काम को देख कर यह तय कर लें कि उन्हें मुझ पर पैसा लगाना है या नहीं, उसके बाद ही मैं कुछ कह पाऊंगा। लेकिन एक बात मैं कहूंगा कि मैं जो भी बनाऊंगा, उसमें एक सोशल मैसेज जरूर होगा, यह तय है।
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