-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
सबसे पहले तो फिल्म के नाम की बात। ‘ओमेरटा’ शब्द इटली से आया है जिसका अर्थ है गलत धंधों में लिप्त रहने वाले किसी शख्स का पुलिस की जोर-जबर्दस्ती के बावजूद पूरी तरह से चुप्पी साधे रहना। तो भैया, ‘चुप्पी’ ही रख देते फिल्म का नाम? पर तब ‘बुद्धिजीवी’ वाला फील नहीं आ पाता न! उत्तपम और
पित्ज़ा में कुछ तो फर्क होता है न।
पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश आतंकवादी ओमर सईद शेख पर बनी यह फिल्म लंदन में रह रहे ओमर के मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ जुड़ने और फिर आतंकी गतिविधियों में शामिल होने की लंबी दास्तान दिखाती है। हमें पता चलता है कि 1992-93 में बोस्निया के हालात से खिन्न होकर ओमर इस रास्ते पर चल पड़ा था। 1994 में उसने दिल्ली में चार विदेशी पर्यटकों को किडनैप किया लेकिन पकड़ा गया। फिर हाइजैक करके कंधार ले जाई गई इंडियन एयरलाईंस की फ्लाइट के बदले में छोड़े गए तीन आतंकियों में ओमर भी था। बाद में उसने अमेरिकी पत्रकार डेनियन पर्ल को किडनैप करके मार डाला और मुंबई हमले के दौरान उसने दो फर्जी फोन-कॉल करके भारत-पाकिस्तान को युद्ध के लिए उकसाया था। आज भी ओमर पाकिस्तानी जेल में बंद है।
इस फिल्म में देखने लायक सिर्फ एक बात है और वह इसका यथार्थ चित्रण। दिल्ली की लोकेशंस को कैमरे के जरिए जीवंत होते हुए देखना इसे एक थ्रिलर लुक देता है। राजकुमार राव के अभिनय को भी इसका एक मजबूत पक्ष कहा जा सकता है। लेकिन यह फिल्म सवाल नहीं उठाती। यह आतंकवाद या अलगाववाद की विचारधारा की बात नहीं करती। न ही यह जवाब देती है। लंदन में पढ़ने वाला एक युवक आखिर किस विचार से प्रभावित होकर आतंक के रास्ते पर चल पड़ता है? उसके ब्रेनवॉश की क्या प्रक्रिया रही होगी? कैसे वह ताउम्र खुद को इस रास्ते पर चलने के लिए राजी करता रहा? क्यों उसे अपनी बात कहने के लिए यही रास्ता सही लगा, कोई दूसरा नहीं? कह सकते हैं कि कोई जरूरी नहीं कि एक फिल्म इस किस्म के सवाल उठाए या उनके जवाब तलाशे। चलिए मान लिया। लेकिन आप आखिर कहना क्या चाहते हैं, यह भी तो साफ नहीं है। इसे देखते हुए लगता है जैसे आप ओमर पर बनी कोई डाक्यूमेंट्री देख रहे हैं। हालांकि हंसल मेहता ने इसे निष्पक्ष रखने की कोशिश की है लेकिन फिर भी यह ओमर और उसकी कारगुजारियों के पक्ष में साफतौर पर झुकी हुई नजर आती है।
फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक बेहद खराब है। हां, साउंड रिकॉर्डिंग जरूर कई जगह प्रभावित करती है। 1994 की दिल्ली में आज के वक्त की कारों के नंबरों पर फिल्म से जुड़े शख्स का ध्यान नहीं गया। स्क्रिप्ट बेहद लचर है जिसमें टाइम-पीरियड का ध्यान रखे बगैर कभी भी, कुछ भी दिखा दिया गया है। संवाद असरहीन हैं। फिल्म का अंत अचानक और बेअसर रहा है। इसका
प्रस्तुतिकरण ऐसा है जिससे इसमें ‘बुद्धिजीवी-पने’ लुक भले ही दिखती हो लेकिन यह फिल्म कुछ देती नहीं है। न ही यह सोचने पर मजबूर करती है। न यह उत्तेजित करती है, न उद्वेलित, न भावुक और न ही प्रभावित। अगर कोई फिल्म अपने बनने के मकसद को ही न स्पष्ट कर पाए तो उसका जन्म लेना ही बेकार है। सिर्फ ‘बुद्धिजीवी-सिंड्रोम’ से
ग्रसित लोगों के लिए है यह फिल्म।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
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