Friday, 25 May 2018

रिव्यू-सच के पोखरण में फिल्मी ‘परमाणु’


-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
1998 में पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण कितने जरूरी थे? उनसे हमारे देश की सामरिक ताकत कितनी बढ़ी? और क्या उसी वजह से 1999 में हमें कारगिल झेलना पड़ा? इस किस्म के सवाल राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्रों में बहस का मुद्दा हो सकते हैं। लेकिन यह फिल्म ऐसी किसी बहस में पड़े बिना सीधे-सीधे यह दिखाती है सुबह के अखबार में जब आप ऐसी कोई खबर पढ़ते हैं कि भारत ने परमाणु परीक्षण कियातो इसके पीछे असल में कितने सारे लोगों की दिमागी और शारीरिक मेहनत लगी होती है। कितने सारे लोगों ने उसमें अपने और अपनों के सपनों की आहुति दी होती है। और बस, यहीं आकर यह एक ज़रूरी फिल्म हो जाती है।

यह सच है कि 1995 में पोखरण में परमाणु परीक्षण करने की भारत की कोशिशों को अमेरिकी जासूसी उपग्रहों ने पकड़ लिया था और फिर 1998 में इतने गुप्त तरीके से इस ऑपरेशन शक्तिको अंजाम दिया गया था कि बाद में अमेरिका ने भी इसे अपनी नाकामी माना था। यह फिल्म उसी सच को सिनेमाई कल्पनाओं के साथ दिखाती है। 1995 में दोषी ठहरा कर सस्पेंड कर दिए गए अफसर अश्वत्थ रैना 1998 में एक छोटी-सी टीम के साथ इस काम को बेहद कुशलता, गति और सलीके के साथ करता है।

इस विषय को काफी सरल और बहुत कुछ फिल्मीतरीके से विस्तार दिया गया है। यह विस्तार कई जगह इतना ज्यादा फिल्मीहो गया है कि बचकाना-सा लगने लगता है। मूल विषय को लेकर की गई रिसर्च जहां प्रभावित करती है वहीं उसे एक सिनेमाई कहानी के तौर पर फैलाते समय रह गई कमियां भी साफ नजर आती हैं। खासतौर से किरदारों को बुनने में बेहद हल्कापन बरता गया है। टीम के सीनियर वैज्ञानिक इस कदर निगेटिव मानसिकता के तो नहीं ही रहे होंगे। फिर जो कलाकार लिए गए वे भी इन किरदारों के माकूल नहीं लगे। योगेंद्र टिक्कू अच्छा काम करने के बावजूद ज़रूरत से ज्यादा बूढ़े लगे। मेजर बने विकास कुमार ही जमे-जंचे। खुफिया अफसर बनीं डायना पेंटी का क्यूट-लुक आड़े आता रहा। इतनी सूकड़ी लड़कियां रैंप पर जंचती हैं, खुफिया मिशन पर नहीं। बोमन ईरानी सहज रहे। जॉन अब्राहम अपनी रेंज में रह कर अच्छा काम कर गए। उनकी पत्नी बनीं अनुजा साठे भी ठीक रहीं। अमेरिकी किरदार तो कार्टून सरीखे लगे। गीत-संगीत काफी हल्का रहा। फिल्म में कई जगह दिखाए गए उस समय के असली फुटेज इसका असर बढ़ाते हैं। वहीं हल्की प्रोडक्शन वैल्यू इसे उथला बनाती है।

एक गुप्त मिशन पर निकले कुछ लोगों की यह कहानी नीरज पांडेय की बेबीसरीखी लगती है लेकिन इसमें वैसी कसावट और विश्वसनीयता की तो भारी कमी है ही, वह तनाव भी काफी कम मात्रा में है जो इस किस्म की फिल्मों का एक ज़रूरी तत्व होता है। इसकी स्क्रिप्ट को और गाढ़ा करने की ज़रूरत थी वहीं तेरे बिन लादेनदे चुके निर्देशक अभिषेक शर्मा को इसे और ज्यादा परिपक्व तरीके से बनाना चाहिए था।

बावजूद इन कमियों के यह फिल्म मनोरंजन और रोमांच प्रदान करने के अपने मकसद में कामयाब रही है। फिल्म का अंत मुट्ठियों में पसीना ले आता है। 1995 के नाकाम परीक्षण के समय कांग्रेस की सरकार थी और 1998 की कामयाबी का सेहरा उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के माथे बंधा था, यह एक सच है। इस सच को फिल्म में देख कर उबकाइयां लेने वाले इससे दूर ही रहे तो अच्छा रहेगा-उनके लिए।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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