आखिर एक लंबे इंतज़ार और काफी सारे शोर-शराबे के बाद ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान’
की बंद मुट्ठी खुल ही गई। और अब आप यह जानना चाहेंगे कि यह फिल्म कैसी है?
क्या इस फिल्म पर अपनी मेहनत और ईमानदारी (या बेईमानी) से कमाए गए पैसे खर्च किए जाएं या फिर इसे छोड़ दिया जाए?
चलिए,
शुरू करते हैं।
साल 1795 के हिन्दोस्तान की रौनक पुर (चंपक, नंदन, पराग की कहानियों से निकले) नाम वाली कोई रियासत। ऊंचा, भव्य किला जो किसी पहाड़ी पर है लेकिन समुंदर के ठीक सामने। (अब भले ही अपने देश में ऐसी कोई जगह न हो।) लेकिन वहां कोई भी ऐसा पेड़ नहीं दिखता जो अक्सर समुंदरी किनारों पर पाए जाते हैं। अरे भई,
काल्पनिक इलाका है, आप तो मीन-मेख निकालने बैठ गए। खैर,
अंग्रेज़ी अफसर क्लाइव ने यहां के राजा को मार दिया लेकिन राजा का वफादार खुदाबख्श (अमिताभ बच्चन) राजकुमारी ज़फीरा (फातिमा सना शेख) को लेकर निकल भागा। 11 बरस में इन्होंने ‘आज़ाद’ नाम से बागियों की एक फौज बना ली जो अंग्रेज़ों की नाक में दम किए हुए है। उधर अवध का रहने वाला फिरंगी मल्लाह (आमिर खान) अंग्रेज़ों के लिए काम करता है और उन ठगों को पकड़वाता है जो लोगों को लूटते हैं। (अवध का आदमी समुद्री इलाके में...?
आप न सवाल बहुते पूछते हो गुरु)। क्लाइव साहब खुदाबख्श यानी आज़ाद को पकड़ने का जिम्मा फिरंगी को सौंपते हैं। लेकिन फिरंगी की तो फितरत ही है धोखा देना। वह कभी इस को,
कभी उस को तो कभी सब को धोखा देता हुआ इस कहानी को अंजाम तक पहुंचाता है।
कहा जा रहा था कि यह फिल्म ‘कन्फेशन्स ऑफ ए ठग’ नाम के एक उपन्यास पर आधारित है जो 1839 में लिखा गया था। लेकिन, ऐसा नहीं है। और न ही यह उन ठगों की कहानी है जो राहगीरों को लूटते-मारते थे। फिल्म में इन्हें बस एक बार दिखाया भर गया है। यानी ये लोग इस कहानी में कोई अहम भूमिका नहीं रखते हैं। सो, पहली ठगी इस फिल्म का प्लॉट और इसका नाम आपके साथ करता है। फिल्म उन बागियों के बारे में है जो अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ लड़ रहे हैं। सिर्फ एक जगह इन्हें ‘ठग’ कह देने से ये ठग नहीं हो जाते,
और वैसे भी ‘ठग’ हमारे लिए हीरो नहीं खलनायक होते हैं, यह इस फिल्म को लिखने-बनाने वालों को सोचना चाहिए। हां,
अगर फिल्म में ‘ठगों’ को अंग्रेज़ों के खिलाफ और देश के लिए लड़ते दिखाया जाता तो कुछ बात बनती, लेकिन ऐसा नहीं है। पूरी की पूरी कहानी इतनी ज़्यादा साधारण और औसत दर्जे की है कि आने वाले सीक्वेंस का अंदाज़ा बगल में बैठी मेरी दस साल की बेटी भी लगा रही थी। और स्क्रिप्ट में इतने सारे छेद,
कि छलनी भी शरमा जाए। जो हो रहा है, वो दिखता है। लेकिन वो ही क्यों हो रहा है, यह सवाल मत पूछिएगा।
क्लाइव साहब पूरी फिल्म में अपना सारा काम-धंधा छोड़ कर रौनक पुर में क्यों रहते हैं?
दूसरे वाले अंग्रेज़ी अफसर को फिरंगी ने छोड़ क्यों दिया?
बाद में उस अफसर की आत्मा कैसे जाग गई? और यह सुरैया जान (कैटरीना कैफ) आखिर है क्या बला? फिल्म में वह है ही क्यों? खुदाबख्श के दल के लौंडे-लपाड़ों पर कैमरा जाता ही नहीं कि कहीं उनके छिछोरेपन की पोल न खुल जाए। और उन्होंने अपने इस दल में कैसी-कैसी तो कामुक भंगिमाओं वाली नारियां रखी हुई हैं,
ऊम्फ...! कहीं-कहीं जबरन घुसाए गए संवाद भले ही दमदार लगते हों लेकिन जहां आम बातें बोली गई हैं,
वे काफी हल्की और बेदम हैं। फिल्म के सैट, लोकेशन, स्पेशल इफैक्ट्स शानदार हैं। ज़्यादातर अंधेरे का इस्तेमाल,
पूरी फिल्म पर छाई सीपिया रंग की टोन,
कैमरा एंगल्स, एक्शन, बैकग्राउंड म्यूज़िक आदि इसे भव्य भले बनाते हों,
लेकिन यह सब भी रोमांचित नहीं करता। इन्हें देख कर मुट्ठियां नहीं भिंचतीं,
कुर्सी के हत्थे पर हाथ मारने का मन नहीं होता।
इतिहास में कल्पना का छौंक लगा कर बनने वाली कहानियां भी दर्शकों को लुभा सकती हैं,
यह बरसों पहले आमिर की ही फिल्म ‘लगान’ हमें बता चुकी है। लेकिन इसके लिए दमदार कहानी, सधा हुआ निर्देशन और भावनाओं का उमड़ता हुआ समुंदर चाहिए होता है जो इस फिल्म में सिरे से गायब है। अब कहने को यह फिल्म अपने मूल में अंग्रेज़ों के खिलाफ देशभक्तों की जंग दिखाती है लेकिन इसे देखते हुए देशप्रेम की भावना हल्की-सी भी नहीं जागती क्योंकि यह आज़ादी और गुलामी की सिर्फ बातें करती है,
आज़ादी का सुख या गुलामी की पीड़ा नहीं दिखाती। राजा के मर जाने के बाद अंग्रेज़ों के राज में सब सुखी ही तो दिखे हैं फिल्म में।
अमिताभ बच्चन फिल्म में 11 साल बीत जाने के बाद भी वैसे के वैसे दिखे हैं। भारी-भरकम पोशाक और उससे भी भारी आवाज़ में इक्का-दुक्का संवाद बोलते अमिताभ बड़े बुझे-बुझे से लगे हैं। वह न तो ‘बाहुबली’ के कटप्पा हो पाए हैं,
न ‘क्रांति’ के दिलीप कुमार और न ही 2007 में आई अपनी ही फिल्म ‘एकलव्य’ के शाही सिपाही। आमिर खान का रंगीला किरदार फिल्म को जीवंत बनाता है। वह पर्दे पर आते हैं तो रौनक रहती है। कैटरीना को सुंदर ही दिखा देते तो कम से कम कुछ तो पैसे वसूल होते। फातिमा सना शेख जंचीं। रोनित रॉय दमदार रहे। आमिर के दोस्त सनीचर बने मौहम्मद ज़ीशान अय्यूब उम्दा लगे। मुलायम सिंह यादव सरीखी उनकी संवाद अदायगी लुभाती रही। गाने साधारण रहे,
संगीत उससे भी ज़्यादा साधारण और कोरियोग्राफी कमज़ोर।
निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य बतौर स्क्रिप्ट राइटर भले ही ‘धूम’ और ‘धूम 2’
जैसी उम्दा मनोरंजक फिल्में दे चुके हों लेकिन बतौर निर्देशक उनके खाते में ‘टशन’ जैसी पकाऊ और धूम सीरिज़ की सबसे हल्की फिल्म ‘धूम 3’
ही दर्ज हैं। हैरानी होती है कि कैसे उन्होंने ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान’ के लिए निर्माता आदित्य चोपड़ा को राज़ी किया होगा। सच तो यह है कि इस किस्म की फिल्में उस पैसे की बर्बादी हैं जो सिनेमा वाले हमारी-आपकी जेबों से इक्ट्ठा करके ऐसे निर्देशकों को सौंप देते हैं। यह उन संसाधनों को भी बर्बाद करती हैं जिनसे बेहतर सिनेमा बनाया जा सकता है।
अपनी भव्यता, चमकते चेहरों और दिवाली की छुट्टियों के दम पर यह फिल्म अपनी जेबें ज़रूर भर लेगी लेकिन हमारे सिनेमाई इतिहास या सिनेमा के प्रति हमारे शैदाई दिलों में कोई पुख्ता मकाम नहीं पा सकेगी, यह तय है।
फिल्म के अंत में फिरंगी का दोस्त उससे पूछता है-तुम महान ज़्यादा हो या कमीने?
फिरंगी जवाब देता है-महान कमीने। यह फिल्म भी ऐसी ही है। अपने नाम,
चेहरे,
कद-बुत,
शक्लो-सूरत से तो महान, लेकिन दर्शकों को कुछ देने के नाम...! ठगती है यह फिल्म। ठगते हैं ऐसे फिल्मकार। इनसे बच कर रहिए।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए
हैं।)
बेबाक समीक्षा के लिए धन्यवाद । बहुत बढ़िया दुआ जी ।
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteआपने मेरे पैसे बचा लिए।
ReplyDeleteवादे के मुताबिक आधे इधर...
Deleteसुंदर समीक्षा
ReplyDeleteशुक्रिया... आभार...
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