-दीपक दुआ... (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
बनारस के मंदिरों में नक्काशी करने वाला एक मुस्लिम कारीगर अल्लाह रक्खा। उसके
बाप-दादा भी यही किया करते थे। लेकिन आज कुछ लोगों को उसके धर्म से तो कुछ को उसके
कर्म से एतराज़ है। ये लोग दोनों तरफ हैं। कुछ हिन्दुओं को एतराज़ है कि एक मुसलमान उनके
मंदिर में आकर ‘उनके’ देवी-देवताओं को कैसे छू
सकता है। उधर कुछ मुसलमानों को एतराज़ है कि यह शख्स काफिरों के मंदिरों में जाकर काम
कैसे कर सकता है। लेकिन अल्लाह रक्खा के लिए यही उसकी रोज़ी है। उससे काम करवाने वाले
मंदिर के महंत वेदांती जी भी उसका साथ देते हैं। लेकिन इनके आसपास के कुछ लोग नहीं
चाहते कि यह सद्भाव बना रहे। एक साज़िश होती है और...!
फिल्म एक संवेदनशील विषय को उठाती है। एक ऐसा विषय जिस पर बात किया जाना ज़रूरी
भी है। एक ऐसा समाज जहां कभी राजनीति से धर्म को दूर रखा जाता था वहीं अब कुछ लोग धर्म
की ही राजनीति करने लगे हैं तो ऐसे में एक आम आदमी कैसे जिए? वे लोग क्या करें जो अपने जीने के लिए कर्म करते हैं
और धर्म को सिर्फ सद्भाव का विषय मानते हैं, उलझाव का नहीं? निर्देशक ज़ैग़म इमाम अपने
लेखन से और अपने निर्देशन से ऐसे सवाल, उन सवालों से उपजी परिस्थितियां दिखा पाने में कामयाब रहे हैं। मुस्लिम कारीगर
का मंदिर में जाने से पहले हिन्दुओं की तरह माथे पर तिलक लगाना और लौटने के बाद उसे
मिटाना दरअसल हमारे समाज के उस दोगले चरित्र को दिखाता है जो एक आम, शरीफ इंसान को उसकी मर्ज़ी से जीने तक नहीं देना चाहता।
संवाद सहज और कुछ एक जगह काफी असरदार हैं। हालांकि ज़ैग़म कहीं-कहीं चूके भी हैं।
बतौर लेखक वह थोड़ा भटके भी हैं। कुछ सीन गैरज़रूरी भी लगे हैं और बतौर निर्देशक कुछ
एक जगह वह उतनी ज़ोर से अपनी बात नहीं कह पाए हैं जितना दम इस किस्म के विषय में होना
चाहिए था। बावजूद इसके, विषय के प्रति उनकी नेक
नीयत से इंकार नहीं किया जा सकता। विषय की गंभीरता बनाए रखने के लिए वह फालतू के मसालों
से बचे हैं। इससे फिल्म में रूखापन भले ही आया हो, हल्कापन नहीं आ पाया है और यही इस फिल्म को दर्शनीय बनाता है।
तमाम किरदार कायदे से उकेरे गए हैं। अल्लाह रक्खा की भूमिका में इनामुल हक़ बेहद
प्रभावी रहे हैं। उनके दोस्त समद के किरदार में शारिब हाशमी, वेदांती जी बने कुमुद मिश्रा, थानेदार के रोल में राजेश शर्मा, धर्म की राजनीति करने वाले उग्र युवा नेता पवन तिवारी
जैसे तमाम कलाकारों ने असरदार काम किया है। कैमरा बनारस को एक अलग रंग, एक अलग अंदाज़ में दिखाता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार
हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय।
मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए
हैं।)
Very nice Deepak sir mujhe aapka blog patha acha lagta h mere pas se aapka no kho gaya tha yhanks
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया... आभार...
Deleteफिल्म के मुकाबले समीक्षा बहुत बेहतर है।
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteफिल्म के मुकाबले समीक्षा बहुत बेहतर है।
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