-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
‘रंग दे बसंती’ में एयरफोर्स अफसर बने माधवन कहते हैं-‘तुम बदलो न इस देश को। पॉलिटिक्स ज्वाइन करो,
पुलिस या आई.ए.एस. में भर्ती हो जाओ, बदलो चीज़ों को। लेकिन तुम नहीं करोगे। क्योंकि घर की सफाई में हाथ गंदे कौन करे...!’
इस फिल्म को आए 13 बरस से ज़्यादा हो गए। इस दौरान कई बार मेरे ज़ेहन में यह ख्याल आया कि माधवन की इस सलाह को कितनों ने सुना होगा? सुना होगा तो क्या माना भी होगा? माना होता तो हर साल इस मुल्क की ऊंची और पॉवरफुल कुर्सियों पर आ बैठने वाले आई.ए.एस., आई.पी.एस. अफसर हालात बदलने के लिए क्यों नहीं कुछ कर पा रहे? क्या ये भी ज़ंग लगे सिस्टम का हिस्सा होकर रह जाते हैं? और फिर मुझे ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्म दिखती है जो बताती है कि अभी इतना अंधेरा नहीं हुआ है कि कोई उम्मीद की किरण भी न ढूंढ पाए। जो दिखाती है कि अयान रंजन नाम का एक आई.पी.एस. अफसर माधवन के कहे को मान कर इस गंदगी में उतरता है, अपने हाथ भी गंदे करता है और चीज़ों को बदलता भी है। उम्मीद की एक बड़ी चमक मुझे इस फिल्म का प्रैस शो देखने के अगले ही दिन अखबार में भी मिलती है कि कैसे विदिशा के कलेक्टर खुद नाले में सफाई करने उतर गए और बाकियों के लिए प्रेरणा बन गए। समाज और सिनेमा जब एकरूप होते हैं तभी तस्वीर मुकम्मल होती है।
यू.पी. के किसी अंदरूनी इलाके में पोस्टिंग पर आए ऊंची जात के अयान को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस जाति के आदमी का छुआ पानी पी रहा है या किस की प्लेट से कुछ उठा कर खा रहा है। लेकिन उसके आसपास वालों को इससे फर्क पड़ता है,
बहुत ज़्यादा फर्क पड़ता है। कोई उससे पूछता भी है-‘सब बराबर हो गए तो राजा कौन बनेगा?’
यही सवाल अयान दूर बैठी अपनी पत्नी से पूछता है तो जवाब आता है-‘किसी को राजा बनना ही क्यों है?’ भई, यही तो लिखा है अपने संविधान की किताब के आर्टिकल 15 में कि देश में किसी के साथ जाति, धर्म, वंश, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। लेकिन इस लिखे को पढ़ा कितनों ने? पढ़ा तो माना कितनों ने?
उन लोगों ने तो कत्तई नहीं जो खुद को किसी धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं। वे लोग जो इस एक आर्टिकल को ही नहीं बल्कि इस पूरी किताब को ही अपने से कमतर मानते हैं। लेकिन अयान कहता है कि इस किताब की तो माननी ही पड़ेगी। देश तो इसी से चलेगा।
लेखक-निर्देशक अनुभव सिन्हा ने सहयोगी लेखक गौरव सोलंकी के साथ मिल कर एक परिपक्व कहानी में अपने इस मुल्क में लगातार हो रही ऐसी घटनाओं को चुन कर बुना है जो असल में नहीं होनी चाहिएं। और अगर हों तो उन पर बात हो, एक्शन हो लेकिन बराबरी से परे रहने वाला अपना समाज ऐसी घटनाओं को ‘रुटीन’ मानता है। जहां जुल्म करने वाले को यह उसका हक लगता है तो जुल्म सहने वाले को लगता है कि यही उसकी नियति है। तभी तो लड़कियों के बाप तक खुद कहते हैं कि पांच-सात दिन रख कर लौटा देते,
मार काहे दिया...!
किरदार दिलचस्प गढ़े गए हैं। हर जाति,
हर किस्म की सोच वाले। इन्हें निभाने के लिए चुने गए कलाकार पूरा ज़ोर लगा कर इन किरदारों में ही तब्दील होते नज़र आते हैं। मनोज पाहवा को हर बार एक अलहदा और उम्दा रोल देकर अनुभव उनके भीतर की आग को सामने ला रहे हैं। कुमुद मिश्रा हमेशा की तरह कमाल करते हैं। कुछ देर के लिए आए मौहम्मद ज़ीशान अय्यूब अपने हावभाव से छाए रहते हैं। उनके हिस्से में संवाद भी उम्दा आए हैं। सयानी गुप्ता,
ईशा तलवार, रोंजिनी चक्रवर्ती ज़रूरी सहयोग दे पाती हैं। अयान रंजन के किरदार को आयुष्मान खुराना जिस शिद्दत से निभाते हैं,
वह उन्हें बतौर अभिनेता बहुत ऊंचे पायदान पर खड़ा करता है।
फिल्म के कई सीन बेहद प्रभावी हैं। अपने आसपास की जाति-व्यवस्था से उलझते अयान को उसके मातहत समझाते हैं-संतुलन मत बिगाड़िए। संतुलन इस बार निर्देशक अनुभव सिन्हा ने भी साधे रखा है। किसी को बुरा नहीं कहा, किसी को दोषी नहीं ठहराया,
लेकिन जो कहना था,
कह गए। इस फिल्म की एक बड़ी खासियत यह भी है कि यह सिर्फ समस्या ही नहीं बताती, उसके हल की तरफ भी इशारा करती है कि हथियार नहीं,
आवाज़ उठाओ। और यह भी कि अगर कोशिशों में ईमानदारी हो,
कुर्सी पर बैठे लोगों में कीचड़ में उतरने का जज़्बा हो तो इस मुल्क की तस्वीर सचमुच बदली जा सकती है। फिल्म एक और बात अंडरलाइन करती है कि बदलाव तो सशक्त सोच वाले अफसर ही लाएंगे,
नेता नहीं।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

इस फिल्म को आए 13 बरस से ज़्यादा हो गए। इस दौरान कई बार मेरे ज़ेहन में यह ख्याल आया कि माधवन की इस सलाह को कितनों ने सुना होगा? सुना होगा तो क्या माना भी होगा? माना होता तो हर साल इस मुल्क की ऊंची और पॉवरफुल कुर्सियों पर आ बैठने वाले आई.ए.एस., आई.पी.एस. अफसर हालात बदलने के लिए क्यों नहीं कुछ कर पा रहे? क्या ये भी ज़ंग लगे सिस्टम का हिस्सा होकर रह जाते हैं? और फिर मुझे ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्म दिखती है जो बताती है कि अभी इतना अंधेरा नहीं हुआ है कि कोई उम्मीद की किरण भी न ढूंढ पाए। जो दिखाती है कि अयान रंजन नाम का एक आई.पी.एस. अफसर माधवन के कहे को मान कर इस गंदगी में उतरता है, अपने हाथ भी गंदे करता है और चीज़ों को बदलता भी है। उम्मीद की एक बड़ी चमक मुझे इस फिल्म का प्रैस शो देखने के अगले ही दिन अखबार में भी मिलती है कि कैसे विदिशा के कलेक्टर खुद नाले में सफाई करने उतर गए और बाकियों के लिए प्रेरणा बन गए। समाज और सिनेमा जब एकरूप होते हैं तभी तस्वीर मुकम्मल होती है।

दलितों की तीन लड़कियों के साथ बलात्कार हुआ। दो को पेड़ पर लटका कर मार डाला। क्यों? उन्हें उनकी ‘औकात’ बताने के लिए?
पुलिस ने उलटे उन्हीं के पिताओं पर केस बना डाले। लेकिन अयान तय करता है कि वह जड़ तक जाएगा। वह सीन प्रतीकात्मक है जब वह अपने थाने के बाहर फेंके गए कूड़े के ऊपर से होकर चलता है। बाद में वह तीसरी लड़की की तलाश में गंदे तालाब में भी उतरता है। लगता है उसे माधवन की बातें याद हैं कि घर साफ करना है तो हाथ गंदे करने ही होंगे।

फिल्म की कहानी और स्क्रिप्ट तो प्रभावी है ही, इसे जिस तरह से कहा गया है, वह तरीका भी काफी असरदार है। अयान के ड्राईवर का किस्से सुनाना सुहाता है और असर भी करता है। खासकर वह किस्सा कि कैसे एक गांव वालों ने खुद को अंधेरे में रखना स्वीकार किया ताकि राजा राम के महल की चकाचौंध उन्हें और ज़्यादा प्रतीत हो। जाति-व्यवस्था में भी तो यही होता है न। गांव-देहात में लोगों की बातों,
उनकी सोच से हैरान होते अयान का अपनी पत्नी से लगातार व्हाट्सऐप पर संवाद करना कहानी का रोचक हिस्सा हो जाता है। संवाद तो कई जगह गज़ब लिखे गए हैं। इतने गज़ब कि सिर्फ संवादों के लिए इस फिल्म को दोबारा देखा जा सकता है। स्क्रिप्ट ज़रूर कुछ जगह हल्की पड़ी है। कुछ एक सीन गैरज़रूरी लगते हैं। सी.बी.आई. वाला प्रकरण प्रभावी नहीं बन पाता। दलितों की हड़ताल के बाद सफाई-व्यवस्था ठप्प पड़ जाना क्या यह नहीं बताता कि सफाई करना सिर्फ दलितों का ही ‘काम’ है?

फिल्म की लोकेशंस इसे यथार्थ रूप देती है। इवान मुलिगन का कैमरा सीन दिखाता ही नहीं,
बनाता भी है, कुछ इस तरह से कि वे आपकी आंखों से उतर सीधे ज़ेहन पर जा टिकते हैं। फिल्म में काफी देर तक सीपिया रंग की टोन कहीं इसलिए तो नहीं कि वक्त भले ही 2019 का हो लेकिन देश का यह हिस्सा अभी भी अतीत में जी रहा है?
बैकग्राउंड म्यूज़िक फिल्म के रंगों को गाढ़ा करता है। फिल्म का नाम ज़रूर पहली नज़र में पराया-सा लगता है। यह ‘मुल्क 2’
भी हो सकता था,
‘दलदल’
भी।

यह फिल्म उपदेश नहीं पिलाती, ज्ञान नहीं बघारती,
बोर नहीं करती बल्कि मुख्यधारा सिनेमा के थ्रिलर, हास्य, व्यंग्य जैसे तत्वों के साथ अपने समाज की कुछ ऐसी तस्वीरें दिखाती हैं जो कुछ कहती हैं, कचोटती हैं,
कोंचती हैं और यह हक मांगती हैं कि इन पर बात तो हो। अपने मुल्क में जाति-व्यवस्था के उलझ चुके ताने-बाने तभी तो सुलझेंगे।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Review to 5 Starrer hai...Baki apka review is.. movie ko bhi 4 starrer banata dikh raha hai....Thank u so much sir...shandar
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteफ़िल्म तो देखनी ही थी पा' जी। पर आपने इन्तज़ार मुश्किल कर दिया। 😂😂
ReplyDeleteशुक्रिया...
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