Thursday, 13 June 2019

रिव्यू-रहस्य-रोमांच का खेल ‘गेम ओवर’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
शहर के बाहरी पॉश इलाके की एक बड़ी कोठी में अकेली रह रही एक युवती को आधी रात को बेदर्दी से कत्ल कर दिया जाता है। हत्यारा सनकी है। वह वीडियो बनाते हुए लड़की की गर्दन को तलवार से अलग कर देता है और धड़ को जला देता है। हम अखबारों की सुर्खियां देखते हैं कि शहर में लगातार इस किस्म की वारदातें हो रही हैं। हमें लगता है कि यह फिल्म सीरियल किलिंग दिखाने वाली एक मर्डर-मिस्ट्री होगी। क्या सचमुच...?

शहर के वैसे ही इलाके की एक बड़ी कोठी में एक गार्ड और अपनी केयरटेकर के साथ रह रही युवती सपना (तापसी पन्नू) को अंधेरे से डर लगता है। उसके अतीत का एक हादसा उसे कोंच रहा है। हमें लगता है कि यह एक साइक्लॉजिकल थ्रिलर होगी। क्या सचमुच...?
सपना ने साल भर पहले अपनी कलाई पर एक टैटू बनवाया था। अक्सर उसे इस जगह पर भयंकर दर्द होता है। इस टैटू से जुड़ा एक सच सामने आता है तो सपना के साथ हम भी चौंकते हैं। हमें लगता है कि यह एक हॉरर फिल्म होगी। क्या सचमुच...?
दरअसल इस फिल्म की यही खासियत है कि यह देर तक हमें इसी में उलझाए रखती है कि इसका फ्लेवर क्या है? यह अलग बात है कि इसकी यही खासियत ही हिन्दी के उन दर्शकों की नज़र में खामी बन सकती है जो घिसे-पिटे ढर्रे की फिल्में देखते आए हैं और जिन्हें पहले रामसे और बाद में विक्रम भट्ट हॉरर के नाम पर नींबू-मिर्ची चटाते रहे हैं। इस किस्म की फिल्मों को लेकर दक्षिण भारत में हो रहे एक्सपेरिमैंट चौंकाते हैं। जी हां, यह फिल्म असल में तमिल-तेलुगू में बनी है और हिन्दी में इसे डब किया गया है। दोनों जगहों की भाषाओं और वाक्य-विन्यासों में अंतर के चलते डबिंग कहीं-कहीं गड़बड़ाती भी दिखती है। लेकिन फिल्म आपका ध्यान पर्दे से नहीं हटने देती और इसीलिए ये गड़बड़ें ज़्यादा महसूस नहीं होने पाती।

इस फिल्म की कहानी को जिस तरह से फैलाया और समेटा गया है वह लेखकों के लिए आसान नहीं रहा  होगा। यह एक साथ कई बातें करती-दिखाती है। लेकिन अंततः यह एक लड़की के अपनी निराशा, अपने डर को जीत कर उठने और भिड़ने का संदेश देती है। हां, नायिका के साथ हुए हादसे पर कुछ और बातें प्रभावी तरीके से कहनी रह गईं, वे भी होतीं तो फिल्म और मारक बन सकती थी। फिल्म का अंत परंपरागत लीक से हट कर है। दर्शक ऐसा क्यों हुआ, किसने किया टाइप के सवाल पूछ सकते हैं। इसीलिए यह फिल्म देखना भी आसान नहीं होगा। दिमाग लगाने के शौकीन ही इसे गहराई से पकड़ सकेंगे। फिल्म प्रतीकात्मक रूप से एक वीडियो गेम की तरह चलते हुए कहानी कहती है, जहां प्लेयर को तीन लाइफ लाइन मिलती हैं, जहां उसे खुद ही अपनी चतुराई और हिम्मत से जीत हासिल करनी होती है। जहां भिड़ कर ही जीता जाता है, पीठ दिखा कर नहीं।

अश्विन सर्वनन के निर्देशन में धार है। कैमरा अपनी गति और कोणों से ज़रूरी तनाव बनाता है। कमरा, कमरे में रखे सामान अपनी जगह एकदम फिट लगते हैं। रोशनी की घटत-बढ़त दृश्यों के प्रभाव को कई गुना बढ़ाती है। बैकग्राउंड म्यूज़िक भी असरदार है। तापसी पन्नू ने सपना के किरदार को अंदर तक छुआ है। उनके चेहरे पर बदलते भाव उनके किरदार को विश्वसनीय बनाते हैं। उनकी केयरटेकर कलाम्मा बनीं विनोदिनी वैद्यनाथन अद्भुत अभिनय करती हैं। इन दोनों के बीच की कैमिस्ट्री भी गौरतलब है। लीक से हट कर कुछ अनोखा देखने की भूख इस फिल्म को देख कर काफी हद तक दूर होती है, भले ही मिटती हो।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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