Saturday, 1 February 2020

रिव्यू-तालीम और तालिबान के बीच अटकी ‘गुल मकई’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
15 साल की मलाला अपने पिता से पूछती है-तालिबान की आखिर स्कूल से क्या दुश्मनी है?’ जवाब मिलता है-क्योंकि जो शिक्षित होते हैं, उन्हें फिर जिहाद या गलत हदीस (सीख) की तरफ ले जाना नामुमकिन होता है।

पाकिस्तान के तालिबानी प्रभुत्व वाले इलाके स्वात में एक स्कूल चलाने वाले जियाउद्दीन यूसुफजई के घर जन्मी मलाला ने अपने पिता की संगत में रहते हुए कम उम्र में ही यह समझ लिया था कि शिक्षा से बड़ा हथियार कोई नहीं होता। तालिबानियों को स्कूल तोड़ते और टीचरों को मारते देखने के बावजूद मलाला ने अपने पिता के साथ मिल कर इन लोगों के खिलाफ और बच्चियों को तालीम देने के समर्थन में आवाज उठाई। बी.बी.सी. के लिए गुल मकईके छद्म नाम से ब्लॉग लिखे और पूरी दुनिया में लोकप्रियता हासिल करते हुए आखिर नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित भी हुईं। यह फिल्म मलाला के इसी संघर्ष को करीब से दिखाने के लिए बनाई गई है लेकिन दिक्कत यह है कि यह मलाला के संघर्ष से ज्यादा स्वात के हालात पर फोकस करती है और इसीलिए अपने मूल उद्देश्य से भटकी हुई एक औसत फिल्म में तब्दील होकर रह जाती है।

स्वात में तालिबानी जुल्मों के सामने वहां की सरकार और आर्मी तक लाचार है। आम लोग या तो वहां से पलायन कर चुके हैं या फिर तालिबानी अत्याचार सहने पर मजबूर हैं। ऐसे में लड़कियों की तालीम की बात करती मलाला को गोली भी लगती है। फिल्म का पहला सीन यही है। लगता है कि इसके बाद मलाला के यहां तक पहुंचने के संघर्ष को बारीकी से दिखाया जाएगा। लेकिन फ्लैशबैक में फिल्म भटक जाती है। स्वात में बढ़ते तालिबानियों के अत्याचार, बच्चों-नौजवानों को फुसला कर जिहाद के रास्ते पर ले जाने, आर्मी का उन पर वार, मीडिया में उठती आवाजों के बीच मलाला की भूमिका सिर्फ एक आम किशोरी-सी ही दिखाई गई है। फिल्म के अंत में मलाला पर गोली चलती है और उसके बाद बैकग्राउंड से आते नैरेशन के बाद फिल्म खत्म हो जाती है जबकि कायदे से मलाला के बारे में दुनिया को पता ही इस हादसे के बाद चला था। इसके बाद ही मलाला से कुछ विवाद भी जुड़े थे। फिल्म देख कर लगता है कि बस, मलाला के मलाला बनने की शुरूआत तक दिखाना ही फिल्मकार का मकसद था।

भास्वती चक्रवर्ती का लेखन मलाला के जीवन के असल संघर्ष पर फोकस करता तो फिल्म ज्यादा दमदार बन सकती थी। अमजद खान का निर्देशन भी हल्का ही है। खूबसूरत लोकेशंस की वजह से दृश्य अच्छे तो लगते हैं लेकिन कसी हुई स्क्रिप्ट और सधे हुए निर्देशन के अभाव में ये प्रभावी नहीं बन पाते। संवाद भी बस दो-एक जगह ही असर छोड़ते हैं। किरदारों को मजबूती से खड़ा नहीं किया गया और इसी वजह से मलाला के रोल में रीम शेख प्यारी लगने के बावजूद आपको उद्वेलित नहीं कर पाती हैं और अतुल कुलकर्णी या दिव्या दत्ता जैसे कलाकार भी औसत महसूस होते हैं। मुकेश ऋषि, पंकज झा, कमलेश गिल, अभिमन्यु सिंह, आरिफ ज़कारिया और स्वर्गीय ओम पुरी जैसे कलाकारों का भी भरपूर इस्तेमाल नहीं हो पाया है। पंकज त्रिपाठी, शारिब हाशमी कब आकर चले जाते हैं, पता ही नहीं चलता। फिल्म की लंबाई अखरती है और इसका डॉक्यूमैंट्री नुमा सफर खटकता है। गाने बैकग्राउंड में हैं और बेअसर हैं। दरअसल यह पूरी फिल्म ही कुछ खास असर नहीं छोड़ पाती है। एक बेहद उम्दा विषय को सस्ते में निबटाती है यह फिल्म।
(नोट-यह समीक्षा ‘हिन्दुस्तान समाचार-पत्र में 1 फरवरी, 2020 को प्रकाशित हो चुकी है)
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।) 
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