-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
मोहित सूरी इस किस्म की फिल्में सलीके से बनाते आए हैं जिनमें
इंसानी मन के अंधेरों की बात होती है। महेश भट्ट कैंप से मिली तालीम से उन्हें डार्क
और रोमांटिक, दोनों किस्म की कहानियां बखूबी कहनी आती हैं। इस फिल्म में भी वह कमोबेश कामयाब
ही रहे हैं। गोआ के रंगीन लाइफ-स्टाइल, नशे की दुनिया, खुलापन
दिखाते हुए वह हमें एक अलग ही मस्तमौला संसार में ले जाते हैं। फिल्म का संगीत, सिनेमॉटोग्राफी, अंधेरे
और रंगों का इस्तेमाल इसे एक अलहदा रंगत देता है जो इस किस्म की फिल्मों पर सूट करती
है। एक्टिंग हर किसी की उम्दा है। दिशा ने हॉट लगने को कोटा जी भर कर पूरा किया है।
आदित्य खूब जंचे हैं। कुणाल खेमू ने चौंकाने वाला काम किया है तो वहीं अनिल कपूर हमेशा
की तरह हर किसी पर भारी रहे हैं। एली अवराम भी अपने अभिनय से प्रभावित करती है। हैरानी
की बात यह कि फिल्म के सबसे उम्दा संवाद एली के हिस्से में आए हैं।
आमतौर पर ‘मलंग’
अपनी धुन में मस्त रहने वाले लोगों को कहा जाता है। यह कहानी भी ऐसे ही कुछ लोगों की है जो अपने-आप में मस्त हैं। लेकिन एक जगह आकर इनकी राहें टकरा जाती हैं और तब शुरू होता है एक खूनी खेल। जेल से छूटा अद्वैत (आदित्य रॉय कपूर) 24 दिसंबर की रात को एक-एक करके कुछ पुलिस अफसरों को मार रहा है। क्यों...? ज़ाहिर है इसका कारण उसके अतीत में है। उसकी प्रेमिका सारा (दिशा पाटनी) बार-बार उसे याद आती है। क्यों...? पुलिस इंस्पैक्टर माइकल (माइकल)
और अगाशे (अनिल कपूर) उसे रोकने में लगे हैं। अचानक वह सैरेंडर कर देता है। क्यों...?
अपने मिज़ाज से यह एक रोमांटिक थ्रिलर है। हीरोइन के साथ कुछ हुआ तो हीरो बदला लेने में जुट गया। हीरोइन के साथ क्या हुआ था, यह छोटी-छोटी किस्तों में बीच-बीच में आता रहता है। औसत कहानी है जिसे इस किस्म की पटकथा से रोचक बनाया गया है। लेकिन इस चक्कर में यह कभी कुछ ज़्यादा ही पीछे चली जाती है। फिल्म का थ्रिल पार्ट बांधे रखता है और उत्सुकता जगाता है वहीं फिल्म का रोमांटिक पार्ट गोआ (और मॉरीशस)
की फिज़ाओं और दिशा की अदाओं के चलते आंखों को सुहाता है। लेकिन अतीत में जाकर सुस्त होती फिल्म अहसास दिलाती है कि निर्देशक अपनी पकड़ खो रहा है। कहानी को खड़ा करने वाला यह हिस्सा छोटा होता तो फिट रहता। आगे आने वाले सीक्वेंस का अंदाज़ा कई जगह पहले से लगने लगता है जिससे थ्रिल वाले हिस्से का रोमांच भी कम हो जाता है। असल में इस किस्म की फिल्म की सबसे बड़ी ज़रूरत इसकी कसावट और पैनापन होते हैं जो इसमें थोड़े कम पड़ जाते हैं। बावजूद इसके यह फिल्म आपको ज़्यादा बेचैन नहीं करती और भाती है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
रंगीनियों के अंधेरे में गुम ‘मलंग' का रिव्यू पढ़, दिल मलंग हो गया दीपक जी।
ReplyDeleteBadiyaa
ReplyDeleteFilm me suspense h
ReplyDeleteAap ke review se to film men bahoot kuch naya hain jaroor dekhenge.
ReplyDeleteरिव्यु का शीर्षक ही जबरदस्त है..रंगीनियों में डूबा मलंग... क्योंकि मलंग आंतरिक रौशनी में डूबे रहते है ..वो दुनिया की रंगीनियों में डूबे अच्छे नहीं लगते...जब शीर्षक में ही सारी बात कह दी तो बाकि तो फिर कहना भर है सो आप " कहने"से बाज़ नहीं आये !"😊 हमेशा की तरह ईमानदाराना लेखन..आपको बधाई !!
ReplyDeleteGreat Artist of the world...nothing like Deepak Dua...every word have deep creative thought.
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