-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
बंद कमरे में अमन अपने माता-पिता को बताता है कि वह ‘गे’ (समलैंगिक) है और कार्तिक से प्यार करता है। मां कहती है-‘तू चिंता मत कर, हम तेरा इलाज करवाएंगे और तू बिल्कुल ठीक हो जाएगा।’
अमन कहता है-वाह मम्मी, आपका ऑक्सीटोसिन प्यार और मेरा बीमारी...!
हिन्दी का पर्दा अब वर्जनाएं तोड़ने लगा है। ठीक है कि लेखकों की कलम अभी पूरी तरह से नहीं खुल पाई है लेकिन किसी आम मसाला फैमिली एंटरटेनर फिल्म में दो समलैंगिक लड़कों के प्यार और शादी की बात भला पहले कहां हुई है। हाल के बरसों में हिन्दी वालों ने डरते-डरते ही सही,
ऐसे विषयों को लेकर दुस्साहस शुरू किए हैं। हालांकि इनमें से ज़्यादातर दुस्साहस लचर ही साबित हुए हैं लेकिन इस फिल्म में समाज के कसे हुए ताने-बाने के बीच से अपनी बात कहने का जो रास्ता निकाला गया है, उसके लिए लेखक हितेश कैवल्य सराहना के हकदार हैं।
करीब ढाई साल पहले एक तमिल फिल्म के रीमेक के तौर पर बनी ‘शुभ मंगल सावधान’ को लिखते समय यही हितेश बुरी तरह से फैल कर फेल हो गए थे। लेकिन इस बार उन्होंने अपनी कलम को साधा है और एकदम शुरूआत से मुद्दे को पटरी पर टिकाए रखा है। चूंकि इस किस्म के विषय को उठाना बेहद जोखिम भरा है और फिल्म कहीं आर्ट-फिल्म बन कर न रह जाए तो भला हो ‘तनु वैड्स मनु’ जैसी फिल्मों का जिन्होंने बताया-सिखाया है कि यू.पी. के शादी वाले घर के माहौल में कह डालो जो कहना है। इस फिल्म को हल्का-फुल्का बनाए रखने के लिए हितेश ने काफी कुछ डाला है। कज़िन की शादी, काली गोभी,
धरना-प्रदर्शन, कर्फ्यू,
मां-बाप के शादी से पहले के अफेयर, घर के टंटे,
आपसी झगड़े और न जाने क्या-क्या। इस ‘काफी कुछ’ ने फिल्म के मिज़ाज को तो रंगीन बनाया है लेकिन एक साथ इतनी सारी बातों का पर्दे पर आना फिल्म के संतुलन को बिगाड़ता है। काली गोभी वाला हिस्सा शुरू में हंसाते हुए बाद में लथड़ जाता है जबकि इसे परिवार और समाज की ज़िद से जोड़ा जाना चाहिए था। बतौर लेखक कामयाब रहे हितेश इंटरवल के बाद बतौर निर्देशक गड़बड़ाए हैं। दो घंटे की होने के बावजूद फिल्म बीच-बीच में झूल जाती है लेकिन अंत में ज़्यादा साहसिक न होते हुए भी एक नाज़ुक मुद्दे को कायदे से संभाल भी जाती है।
कार्तिक बने आयुष्मान खुराना इस तरह के किरदारों में जंचते आए हैं और यहां भी कुछ नया या धाकड़ न करने के बावजूद सुहाए हैं। अमन के रोल में जितेंद्र कुमार प्रभावित करते हैं। अवार्ड लेने वाली परफॉर्मेंस रही है उनकी। पिता बने गजराज राव,
मां के रोल में नीना गुप्ता, चमन चाचा के दिलचस्प किरदार में मनु ऋषि चड्ढा,
चंपा चाची बनीं सुनीता राजवर, केशव बने नीरज सिंह,
कभी टी.वी. पर ‘रज़िया सुलतान’ में रज़िया बन कर आईं पंखुड़ी अवस्थी कुसुम के रोल में और गॉगल के किरदार में मानवी गगरू जैसे कलाकारों ने अपने-अपने किरदारों को दम भर थामा है। सच तो यह है कि यह फिल्म इन्हीं दिलचस्प किरदारों और इनके चुटीले संवादों के चलते ही ज़्यादा मजे़दार हो पाई है। फिल्म का म्यूज़िक रसीला है और फिल्म को सहारा देता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

यही तो होता है हमारे समाज में कि जिस किसी ने भी समाज की रिवायतों के बंधे-बंधाए ढर्रे से हट कर चलना चाहा उसे ‘बीमार’ मान लिया गया जबकि सच यह है कि इंसान समलैंगिक बनता नहीं है, होता है। ठीक वैसे, जैसे यह फिल्म कहती है कि अमिताभ बच्चन बना नहीं जाता, वो तो होता है।



(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
आपकी लम्बी समीक्षा..इस बात की दलील है कि जब दीपक दुआ की कलम किसी फिल्म के नाज़ुक पहलुओ के बारे में शुरू में ही कह देती है तो मतलब " फ़िल्म देखने का बीड़ू !!"
ReplyDeleteYe to pakka dekhni h
ReplyDeleteबोले तो फिल्मवा को देखना है |
ReplyDeleteNobody can challange, word like deepak dua....
ReplyDelete