-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
राजस्थान के लोकप्रिय कथाकार विजयदान देथा यानी ‘बिज्जी’ की कहानियों को सिनेमा ने गाहे-बगाहे अपनाया है। बड़ा नाम शाहरुख खान वाली फिल्म ‘पहेली’
का रहा है जो पहले ‘दुविधा’ के रूप में सामने आई थी। निर्देशक दैदीप्य जोशी की यह फिल्म भी बिज्जी की कहानी ‘केंचुली’ पर आधारित है जो पुरुष सत्तात्मक समाज में एक युवती के अपने केंचुल का बोझ उतार फेंकने को बारीकी से दिखाती है।
कहानी की नायिका लाछी यहां पर कजरी है। इतनी खूबसूरत कि दुनिया सोचे कि साढ़े तीन हाथ की देह में ऐसा रूप समाया तो समाया ही कैसे! किशनु से ब्याह कर आई तो उसके रूप-सौंदर्य की चर्चा ठाकुर तक भी जा पहुंची और ठाकुर ने अपने कारिंदे भोजा को उसके पीछे लगा दिया कि वह कजरी को उसकी सेज तक ले आए। गांव की दूसरी औरतों की नज़र में तो ठाकुर की सेज चढ़ना आम बात ठहरी लेकिन कजरी को तो अपने घड़े के पानी के अलावा किसी और पानी से कुल्ला करना भी नामंजूर है। ठाकुर और भोजा के बुरे इरादों को उसने पति को बताया तो वह भोला-भयभीत उसे ही चुप करा गया। कजरी ने बहुतेरे जतन किए कि किशनु भड़के लेकिन बात न बनी। आखिर एक दिन उसने समाज, परिवार,
कपड़ों, गहनों की केंचुली उतार दी और निकल पड़ी। कहते हैं कि पेट में अमर आस लिए वह अभी तक ब्रह्मांड में निर्वसना घूम रही है।
बिज्जी की कहानी और दिल में न उतरे, यह मुमकिन नहीं। उनके पुत्र कैलाश देथा के साथ मिल कर दैदीप्य ने जो पटकथा रची है वह भी प्रभावशाली है। लेकिन कागज़ की हर कहानी पर्दे पर भी उतनी ही गहरी बन कर उतरे,
यह ज़रूरी नहीं। इस कहानी का ‘सीधापन’
इसे उस ऊंचाई तक जाने से रोकता है जहां पहुंच कर कोई कथा विज़ुअल आनंद देने लगती है। कहानी पढ़ते समय लेखक के विचारों से जो नैरेशन मिलता है उसकी भरपाई के लिए यहां भोजा और कजरी के अपनी अंतरात्मा से बात करने के दृश्य भले हों,
लेकिन वे पूरे नहीं पड़ते। यही कारण है कि घर के धंधों में पिसती कजरी की पीड़ा को यह दिखाती तो है, उसे हमारे अंतस तक उस हद तक महसूस नहीं करा पाती कि टीस उठने लगे या मन छटपटाने लगे। इस कहानी को पढ़ चुके लोग इस फिल्म को ज़्यादा एन्जॉय करेंगे,
यह तय है।
दैदीप्य के निर्देशन में धार है। अब उन्हें इस तरह के एक्सपेरिमैंट (वह पहले ‘सांकल’
बना चुके हैं) कुछ नामी कलाकारों के साथ बड़े व्यावसायिक तौर पर करने चाहिएं। अभिनय सभी कलाकारों का उम्दा है। कजरी बनी शिखा मल्होत्रा भरपूर दमदार दिखी हैं। किशनु के किरदार में नरेशपाल सिंह चौहान बेहद सहज रहे। ठाकुर बने ललित पारिमू सधे हुए रहे और भोजा की भूमिका को संजय मिश्रा ने अपनी अदाओं से दिलचस्प बनाया। अंग्रेज़ी का इस्तेमाल वह कुछ ज़्यादा ही कर गए। गीत-संगीत फिल्म में रचा-बसा हुआ है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
very good story ,
ReplyDeleteand sure will go to watch it soon
Beautiful film.
ReplyDeleteBeautiful film.
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