-दीपक दुआ...
15 जून,
2001-शुक्रवार। दिल्ली के प्लाज़ा सिनेमा में दोपहर 12 बजे के शो में फिल्म समीक्षकों को ‘गदर-एक प्रेमकथा’ दिखाई गई। थिएटर के बाहर-भीतर की भीड़, फिल्म देख कर निकले दर्शकों के उत्साह और खुद अपने आकलन से यह तय हो चुका था कि हम अभी-अभी एक ऐसी फिल्म देख कर निकले हैं जो न सिर्फ सुपरहिट होने जा रही है बल्कि आने वाले कई दशकों तक इसे देखा और याद किया जाएगा। बावजूद इसके हमें इंतज़ार था ‘शीला’ सिनेमा में साढ़े चार बजे शुरू होने वाले ‘लगान’ के शो का। अपनी पौने तीन घंटे की लंबाई के चलते आम फिल्मों की तरह एक दिन में चार नहीं बल्कि तीन शो में चल रही यह फिल्म निर्माता के तौर पर आमिर खान की पहली फिल्म थी। फिल्म के बारे में कई साल से चर्चाएं हो रही थीं और छन-छन कर जो कहानियां बाहर आई थीं उनसे साफ था कि यह हिन्दी सिनेमा की चंद अनोखी, अकल्पनीय फिल्मों में से होगी। कैसी होगी, यही देखना था। हालांकि इससे करीब पांच महीने पहले आमिर ‘मेला’
जैसी घटिया और नाकाम फिल्म दे चुके थे लेकिन ‘लगान’ के प्रति फिल्म इंडस्ट्री, मीडिया और दर्शकों में ज़बर्दस्त उत्साह था। खुद मेरे मन में आमिर की छवि के चलते यह उम्मीद जवां थी कि चाहे कुछ हो,
‘लगान’ एक उम्दा फिल्म ज़रूर होगी। उसी शाम ‘शीला’ सिनेमा में इस बात की पुष्टि भी हो गई।
खचाखच भरे थिएटर में बैठे इस फिल्म को देखते हुए वहां हम लोग महज दर्शक नहीं थे। हम लोग भी चंपानेर पहुंच चुके थे। पर्दे पर गूंजते ‘रे भैया छूटे लगान’ के नारे से हम भी उद्वेलित और द्रवित हो रहे थे। हिन्दी के दर्शकों को इतनी लंबी फिल्म देखने की आदत नहीं होती। लेकिन यहां तो अलग ही नज़ारा था। लोग सांस थामे, मुट्ठियां भींचे फिल्म देख रहे थे। पर्दे पर चल रहे क्रिकेट मैच में दर्शक ऐसे शोर मचा रहे थे जैसे सामने भारत-पाकिस्तान का कोई मैच चल रहा हो। बॉल्कनी की पहली कतार में बैठे मैंने पीछे मुड़ कर जब भी दर्शकों की तरफ देखा, उन्हें इस फिल्म में डूबे हुए ही पाया। और हैरानी तो तब हुई जब पौने तीन घंटे बाद यह फिल्म खत्म होने लगी तो मन में टीस उठी कि ऐसा क्यों हो रहा है? तमन्ना जगी कि यह कहानी,
यह फिल्म बरसों-बरस यूं ही चलती रहे और हम सब सुध-बुध खोकर नम आंखों से इसमें यूं ही गोते लगाते रहें।
आमतौर पर कोई फिल्म खत्म होती है तो उसकी समीक्षा लिख कर, कुछ दिन, हफ्ते बाद हम लोग उसे पीछे छोड़ आगे निकल जाते हैं। लेकिन ‘लगान’
मेरे साथ हमेशा बनी रही। मन में रह-रह कर ये ख्याल आते रहे कि कैसे बनी होगी यह फिल्म? जब पर्दे पर इतनी मेहनत दिख रही है तो असल में तो इसे बनाने वालों ने न जाने क्या-क्या किया होगा। अखबारी खबरों से यह सामने आ ही चुका था कि गुजरात के भुज में किस तरह से इस फिल्म ने ज़मीनी आकार लिया,
कैसे इसकी यूनिट महीनों तक मैदान में डटी रही वगैरह-वगैरह। लेकिन यह जानने की तलब हमेशा बनी रही कि ऐसी कहानी सोचने और उसे अमली जामा पहनाने की लंबी प्रक्रिया कैसी रही होगी। फिर कुछ समय बाद पता चला कि इस फिल्म के निर्माण में शामिल रहे आमिर के बचपन के दोस्त सत्यजित भटकल ने अंग्रेज़ी में ‘द स्पिरिट ऑफ लगान’ नाम से एक किताब लिखी है। इसे पढ़ने की इच्छा जगी लेकिन बात आई-गई हो गई। फिर कुछ महीने बीते और खबर मिली कि वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज जी का किया इस किताब का हिन्दी अनुवाद ‘ऐसे बनी लगान’
भी आ गया है। इच्छा फिर जगी लेकिन जीवन की आपाधापी में कभी मौका नहीं मिला। शायद नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।
अजय जी से बीते कुछ बरसों में कई बार मुलाकात हुई लेकिन हमारे बीच कभी इस किताब की चर्चा न हुई। दिसंबर, 2019 में मैं फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड के अवार्ड शो में भाग लेने के लिए मुंबई में था। अवार्ड नाइट से अगले दिन एक रेस्टोरेंट में हम क्रिटिक्स की मीटिंग थी। यहीं अजय जी ने मुझे इस किताब की एक प्रति भेंट की-अपने स्नेह और आशीर्वाद के साथ। शायद यही होना था कि मुझे यह किताब खुद उनके हाथों से मिलनी थी।
इस किताब को पढ़ने बैठिए तो मन करता है कि पूरी खत्म किए बिना न उठें लेकिन हैरानी तब होती है जब यह किताब अपने खात्मे की तरफ पहुंचती है और मन होता है कि यह कभी खत्म ही न हो। यकीन जानिए, इस किताब के आखिरी के पन्ने आंखें नम कर देते हैं और इससे जुड़े एक-एक ‘लगानी’
को सलाम करने का मन होता है।
कहने को तो यह किताब ‘लगान’ से सत्यजित भटकल के जुड़ने और ‘लगान’ बन कर आने तक के उनके देखे पलों की कहानी है और कायदे से इसे ‘मेकिंग ऑफ लगान’
कहा जाना चाहिए। लेकिन सच सही है कि यह ‘लगान’ की ‘मेकिंग’
(निर्माण) से ज़्यादा ‘लगान’ के बनने की ‘स्पिरिट’
(जज़्बे) की कहानी कहती है। इसे पढ़िए तो कभी यह कथा बन जाती है, कभी उपन्यास, कभी डायरी,
कभी कविता, कभी जीवनी तो कभी वृतांत।
लेकिन इन सबसे ऊपर यह उस जीवट की कहानी है जो आशुतोष गोवारीकर जैसे लेखक-निर्देशक, आमिर खान जैसे समर्पित और सनकी निर्माता,
झामू सुगंध जैसे फायनेंसर और इस फिल्म की पूरी टीम ने इस फिल्म को बनाने में दिखाया। ढेरों अनोखी बातें पता चलती हैं इसे पढ़ते हुए। आमिर की (पूर्व) पत्नी रीना दत्ता के अनंत योगदान से लेकर फिल्म की टीम के भुज में बिताए कई महीनों के जुझारूपन से लेकर स्थानीय लोगों के अविस्मरणीय योगदान से लेकर फिल्म रिलीज़ होने से पहले भुज में आए भूकंप में सब तबाह होने तक की कथा अपने-आप में किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं लगती।
किसी काम के प्रति, किसी इरादे के प्रति कैसे समर्पित हुआ जाता है, यह किताब उसे सहज ही सिखा जाती है। सच तो यह है कि यह किताब जीना सिखाती है। अजय ब्रह्मात्मज जी के किए अनुवाद से यह दिल में उतरती है, वहां जगह बनाती है और हमेशा के लिए वहीं बस जाने का माद्दा भी रखती है।
(नोट-यह किताब अमेज़न से मंगवा सकते हैं। जून, 2001 में फिल्म ‘लगान’ की मेरी लिखी समीक्षा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी.
से भी जुड़े हुए हैं।)
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