Monday, 13 April 2020

ओल्ड रिव्यू-सच और साहस की कहानी ‘लगान'

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
अपने पिछले आलेख (यहां क्लिक करें) में मैंने 15 जून, 2001 को ‘लगान’ देखने और उस पर लिखी सत्यजित भटकल की किताब का उल्लेख किया था। इस किताब का हिन्दी अनुवाद वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज जी ने किया था और दिसंबर, 2019 में उसकी एक प्रति मुझे उपहार में दी थी। अब प्रस्तुत है जून, 2001 में लिखी लगानकी मेरी समीक्षा जो उस दौर की लोकप्रिय फिल्म मासिक पत्रिका चित्रलेखाके मेरे कॉलम इस माह के शुक्रवारमें छपी थी। पढ़िए ज़रा और बताएं कि बरसों पहले लिखी वह समीक्षा आज कहां ठहरती है।

कौन कहता है कि अपने यहां के किसी लेखक को नए विचार नहीं सूझते? कौन कहता है कि हमारी फिल्में कुछ अलग नहीं परोस सकतीं? कौन कहता है कि अनछुए विषयों पर कायदे की मनोरंजक फिल्म नहीं बनाई जा सकतीं? ‘लगानदेखिए, आपको इन सब सवालों का जवाब मिल जाएगा। यह फिल्म आने से पहले आमिर खान की अति परफैक्शनिस्टताको लेकर जो शंका जताई जा रही थी कि कहीं वो इस फिल्म को ले ही डूबे, वो निर्मूल साबित हुई है और इस फिल्म का नाम हमारे सिनेमाई इतिहास में लंबे समय तक चमक कर दूसरों को भी राह दिखाता रहेगा।

सन् 1893 में मध्य भारत के एक छोटे से गांव का आम किसान भुवन (आमिर खान) एक सनकी अंग्रेज़ कप्तान रसेल (पॉल ब्लैकथोर्न) की इस चुनौती को स्वीकार कर लेता है कि यदि वो अंग्रेज़ों को उनके खेल क्रिकेट में नहीं हरा पाया तो पूरा प्रांत तिगुना लगान भरेगा। भुवन की जीत पर अगले तीन बरस के लगान के माफ होने का वादा अंग्रेज़ कप्तान करता है। एक बचकानी चुनौती से शुरू हुआ यह खेल धीरे-धीरे एक जन आंदोलन का रूप ले लेता है और अंत में भुवन उसके साथी अंग्रेज़ों को हरा देते हैं।

पहली नज़र में सुनने वालों को कहानी में बचकानापन लग सकता है। लेकिन यह बात तय है कि ऐसी कहानी आज तक अपनी किसी फिल्म में नहीं आई है और ही ऐसी फिल्म बनाने का साहस ही कोई कर पाया है। सन् 1893 में अंग्रेज़ी हुकूमत का भारत के राजाओं पर कस चुका शिकंजा, उस दौर के ग्रामीण जीवन, अंग्रेज़ी शान-शौकत के अलावा फिल्म कई छोटे-छोटे मुद्दों पर भी ध्यान खींचती है। लेकिन काफी लंबी इस फिल्म में कहने भर को भी एक सीन, एक संवाद या एक पात्र ऐसा नहीं है जो अपनी जगह पर फिट नज़र आया हो।

अवधी उच्चारण वाले के.पी. सक्सेना के गंवई संवाद, जावेद अख्तर के गीत, .आर. रहमान का संगीत, गांव का सैट, वेश-भूषा, चरित्र-चित्रण, ऐसी एक-एक चीज़ को बारीकी से गढ़ा गया है और इस सबके लिए एक संवेदनशील निर्माता के तौर पर आमिर बधाई के पात्र हैं। धारावाहिक अमानतकी डिंकी यानी ग्रेसी सिंह का काम काफी अच्छा रहा। उसी का ही क्यों, फिल्म में सभी कलाकारों ने अपनी सर्वश्रेष्ठ परफॉर्मेंस दी है जिनमें ब्रिटिश कलाकार भी शामिल हैं। अभी तक अपने माथे पर पहला नशाऔर बाज़ीकी नाकामी का धब्बा लिए घूम रहे निर्देशक आशुतोष गोवारीकर के लिए लगानसफलता का जगमगाता सेहरा लाई है।

‘‘सच और साहस है जिसके मन में, अंत में जीत उसी की रहे’’-इस संवाद की थीम पर टिकी यह फिल्म आशुतोष और आमिर के सच साहस का प्रतिफल है। देख डालिए इसे, ऐसी फिल्में कभी-कभार ही बनती हैं।
रेटिंग-साढ़े चार स्टार

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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