-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
एक पागलखाना। वहां बंद सैंकड़ों पागल। उनकी पागलों वाली हरकतें। स्टाफ का अजीबोगरीब व्यवहार। हर रोज़ वहां से गायब होता कोई पागल। साज़िश या संयोग? इसकी तफ्तीश करते कुछ लोग। क्या वहां कुछ गोलमाल चल रहा है या फिर सचमुच कोई राक्खोश
(राक्षस) आकर किसी को ‘शू..’
कर देता है?
रहस्य के आवरण में लिपटी कहानियों के लिए प्रसिद्ध रहे मराठी लेखक स्वर्गीय नारायण धारप (फिल्म ‘तुम्बाड’
की कहानी भी उन्हीं की थी) की इस कहानी में भी डर, रहस्य,
परालौकिकता, मनोविज्ञान, इंसानी मन की उलझनें, उनकी महत्वाकांक्षाएं पिरोई हुई हैं। लेकिन यह कोई साधारण तरीके से बनी फिल्म नहीं है बल्कि इसे बनाने वालों ने इसे एक बिल्कुल ही अलग तरीके से बनाया है जिसके चलते यह अगर अपने क्राफ्ट में अनोखी हुई है तो वहीं अपने कथ्य में कमज़ोर भी।
इसे भारत की पहली ‘प्वाइंट ऑफ व्यू’
फिल्म कहा गया है। यानी पूरी फिल्म में कैमरा बिरसा नाम के एक किरदार की तरफ से बाकी किरदारों को देखता है। जहां और जैसे बिरसा चलता-मुड़ता है,
कैमरा भी वहीं और वैसे मूव करता है। इससे इस फिल्म के रहस्यमयी आवरण को बेशक एक गाढ़ापन मिला है और यह प्रभावित करती है। लेकिन अपने कथ्य और कहन के स्तर पर यह इस मायने में कमज़ोर रही है कि इसे लिखने वालों ने इसे एक मनोवैज्ञानिक थ्रिलर तो बना लिया लेकिन इसकी कहानी के बिखरे पड़े ताने-बानों को कायदे से पकड़ नहीं पाए। या शायद उन्होंने जान-बूझ कर ऐसा किया ताकि बाकी की दिमागी कसरत दर्शक खुद करें। वैसे भी इस किस्म की फिल्में आम दर्शकों के लिए नहीं होती हैं। इन्हें समझने के लिए जूझना पड़ता है।
यह कहीं हॉरर तो कहीं थ्रिलर बनती है लेकिन असल में यह न तो हॉरर के तौर पर डरा पाती है,
न ही थ्रिलर के तौर पर पूरी तरह से रोमांचित कर पाती है। शुरू-शुरू में यहां-वहां भटकती और भूमिका बांधती इसकी कहानी जब पागलखाने से गायब होते लोगों की तफ्तीश पर आती है तो लगता है कि अब यह उन सवालों के जवाब देगी जो दर्शक के मन में उठ रहे हैं और शायद कोई राज़ खोलेगी। लेकिन जिस तरह से यह खत्म होती है,
लगता है इसे बनाने वालों ने इसे दर्शकों से ज़्यादा अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए बनाया है। मानसिक रोगियों के अंतस में झांकने और उनके प्रति परिवार व समाज का बर्ताव दिखाने की कोशिशें भी कायदे से उभार पाने में निर्देशकद्वय अभिजीत कोकाटे और श्रीविनय सलियान पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पाए हैं।
संजय मिश्रा की अद्भुत अदाकारी के लिए यह फिल्म देखी जा सकती है। प्रियंका बोस,
तनिष्ठा चटर्जी, बरुण चंदा, अश्वत्थ भट्ट,
सोनामणि गाडेकर का काम सराहनीय रहा है। बिरसा के जिस किरदार को हम पूरी फिल्म में नहीं देख पाते उसे नमित दास ने अपनी आवाज़ से जीवंत किया है। अपने अनोखेपन के लिए यह फिल्म देखे जाने लायक है। प्रयोगधर्मी सिनेमा के रसिकों के लिए यह फिल्म दर्शनीय है। अभी यह नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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