Sunday, 30 May 2021

ओल्ड रिव्यू-‘यह जवानी है दीवानी’ और मस्तानी भी

कुछ दोस्त हैं। स्कूल-कॉलेज के जमाने के। अलग-अलग रास्तों पर चल कर अपनी-अपनी मंज़िलें तलाश रहे हैं। लेकिन अपने रास्तों और अपने दिल की आवाज़ को लेकर खासे कन्फ्यूज़ भी हैं। उनके साथ हो कुछ और रहा है लेकिन इनके सपने कुछ और हैं। फिर ये लोग एक ट्रिप पर निकलते हैं और वहां इन्हें ऐसे-ऐसे एक्सपीरियंस होते हैं कि इनकी सोच, रास्ते, मंज़िलें, सपने, सब बदल जाते हैं।

Thursday, 27 May 2021

रिव्यू-निःशब्द करती ‘हैंडओवर’

किसी अखबार में छपा कि बिहार के एक गांव में एक मां ने गरीबी से तंग आकर अपनी बच्ची बेच दी। मीडिया में खबर उछली तो बवाल हो गया। सरकार हिलने लगी। तुरंत एक अफसर को भेजा गया कि बच्ची को तलाशो और जाकर उसकी मां को हैंडओवर कर दो। अफसर ने हुक्म बजाया। पर क्या इससे समस्या सुलझ गई? क्या बच्ची सचमुच बेची गई थी? क्या मां वाकई दोषी थी? क्या बच्ची वापस लाने का सरकार का कदम सही था? यह फिल्म इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करती है, एक सार्थक कोशिश।

Wednesday, 26 May 2021

ओल्ड रिव्यू-डराती नहीं उलझाती है ‘फोबिया’

हॉरर फिल्में मुझे निजी तौर पर काफी पसंद हैं। मेरी तरह बहुतेरे लोग हैं जो सिनेमा के पर्दे से टपकते डरको देख कर आनंदित होते हैं। मैं यह भी स्वीकार करना चाहूंगा कि डरावनी या हॉरर फिल्में देखते हुए मुझे आमतौर पर डर नहीं लगता। लेकिन जितना मुझे पवन कृपलानी कीरागिनी एम.एम.एस.’ ने डराया था उतना शायद किसी और फिल्म ने नहीं। मैं आज तक इस फिल्म को दोबारा नहीं देख पाया। उनकीडर एट मॉलभी मुझे अच्छी लगी थी। ऐसे में उन्हीं की तीसरी फिल्मफोबियादेखने के विचार से ही मैं उत्साहित था। लेकिन मेरे उत्साह पर इस फिल्म ने पानी बिखेर दिया-ठंडा पानी...!

ओल्ड रिव्यू-‘वीरप्पन’ का असली कातिल तो रामू है

पुलिस ने वीरप्पन को भले ही 18 अक्टूबर, 2004 को मारा हो लेकिन हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर वीरप्पन की कहानी का कत्ल 27 मई, 2016 को हुआ और वह भी राम गोपाल वर्मा के हाथों।
 
हाथी दांत और चंदन की लकड़ी के कुख्यात तस्कर वीरप्पन की कहानी पर्दे पर उतर कर जो सशक्त रूप ले सकती थी, उसका अंश भर भी इस फिल्म में दिखाई नहीं देता है। अपने आतंक से तीन राज्यों की पुलिस को दहलाने वाला यह तस्कर इस फिल्म में एकबेचाराकिस्म का छुटभैया अपराधी भर बन कर रह गया है। चंदन की तस्करी, राजनेताओं से वीरप्पन के संबंध, राजनीतिक पार्टियों की उससे हमदर्दी जैसे कई पहलू तो कहानी में छुए ही नहीं गए और जो कुछ दिखाया गया वह इस कदर बचकाना है कि देख कर इस फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने वालों की सोच पर हंसी नहीं बल्कि तरस आता है।