पुलिस ने वीरप्पन को भले ही 18 अक्टूबर, 2004 को मारा हो लेकिन हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर वीरप्पन की कहानी का कत्ल 27 मई,
2016 को हुआ और वह भी राम गोपाल वर्मा के हाथों।
हाथी दांत और चंदन की लकड़ी के कुख्यात तस्कर वीरप्पन की कहानी पर्दे पर उतर कर जो सशक्त रूप ले सकती थी, उसका अंश भर भी इस फिल्म में दिखाई नहीं देता है। अपने आतंक से तीन राज्यों की पुलिस को दहलाने वाला यह तस्कर इस फिल्म में एक ‘बेचारा’ किस्म का छुटभैया अपराधी भर बन कर रह गया है। चंदन की तस्करी, राजनेताओं से वीरप्पन के संबंध, राजनीतिक पार्टियों की उससे हमदर्दी जैसे कई पहलू तो कहानी में छुए ही नहीं गए और जो कुछ दिखाया गया वह इस कदर बचकाना है कि देख कर इस फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने वालों की सोच पर हंसी नहीं बल्कि तरस आता है।
वीरप्पन बने संदीप भारद्वाज की लुक और हावभाव कमाल के हैं। काश कि उन्हें चंद अच्छे संवाद भी दिए जाते। वीरप्पन की पत्नी के रोल में उषा जाधव जैसी काबिल अभिनेत्री भी क्या करतीं जब यह किरदार ही हल्का लिखा गया। लीज़ा रे अपनी संवाद अदायगी से पकाती हैं तो सचिन जोशी बोर करते हैं। वैसे फिल्म में उन्हीं का पैसा लगा है तो ज़ाहिर है कि रामू भी उन्हें ज़्यादा कुछ नहीं कह पाए होंगे।
कैमरा प्लेसिंग कुछ एक जगह उम्दा है और लोकेशन शानदार। और हां, फिल्म में ‘बच के तू रहना...’ वाला वह आइटम नंबर नहीं है जो टी.वी. पर दिखाया जा रहा था।
एक लंबे समय से लचर फिल्में दे रहे राम गोपाल वर्मा की हर नई फिल्म मैं (और मुझ जैसे उनके कई प्रशंसक) इस उम्मीद में देखने जाते हैं कि शायद उनकी वह जादूगरी पर्दे पर फिर से दिख जाए जिसके लिए वह कभी जाने जाते थे। पर लगता है कि रामू, देव आनंद हो गए हैं। न तो फिल्में बनाना बंद करते हैं और न ही अच्छी फिल्में बनाते हैं।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
(नोट-मेरा यह रिव्यू इस
फिल्म की रिलीज़ के समय 27
मई,
2016 को किसी पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था। अब यह फिल्म डिज़्नी हॉटस्टार पर देखी जा सकती
है।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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