‘कॉन्सिक्वन्स कर्मा’-नाम से इतना तो खैर पता चलता ही है कि यह फिल्म कर्मों के लेखे-जोखे की बात करेगी। इसने की भी है। लेकिन इसने ‘गीता’ का संदर्भ नहीं बनाया है जो कर्म-फल की थ्योरी देती है। बल्कि यहां ‘गरुड़ पुराण’ का संदर्भ है जो बताता है कि इंसान के कर्मों के मुताबिक उसका हश्र तय होता है। शंकर की तमिल फिल्म ‘अन्नियन’ (हिन्दी में ‘अपरिचित’-2005) इस बारे में बेहतर और दिलचस्प ढंग से अपनी बात रख चुकी है। यह फिल्म दिलचस्पी के मोर्चे पर ही चूकी है।
2 अप्रैल, 2020-रामनवमी का दिन। कुसुम को अपने घर में पूजा करवानी है। लेकिन लॉकडाउन के चलते सब बंद है। एक बंद पड़े मंदिर के बाहर सो रहे पंडित जी मिलते हैं। कुसुम के घर में पूजा शुरू होती है। दो-चार लोग और भी आ जाते हैं। वहां मौजूद हर इंसान का अपना एक अलग व्यक्तित्व है, अपनी अलग टेंशनें, अलग सोच। यह पंडित जी सब को सलाह भी देते हैं। लेकिन ‘गरुड़ पुराण’ के अनुसार जिसने जैसा बोया है, वैसा काटेगा भी। दरअसल यह पंडित जी एक मिथकीय चरित्र हैं जो अभिशापित होकर धरती पर भटक रहे हैं। कौन है यह...?
शादाब अहमद की लिखी कहानी का प्लॉट उम्दा है। मिथकीय चरित्र, गरुण पुराण, कर्म और उसके मुताबिक फल का मिलना जैसी बातें आकर्षित करती हैं। लेकिन इस कहानी को स्क्रिप्ट के तौर पर फैलाते हुए शादाब कमज़ोर पड़े हैं। वह पर्याप्त मात्रा में दिलचस्प घटनाएं नहीं गढ़ पाए, ऐसी घटनाएं जो बांध पाएं। किरदारों को गढ़ने में भी वह चूके हैं। उन्हें अधिक विस्तार और मजबूती दी जानी चाहिए थी। संवाद ज़रूर कई जगह उन्होंने अच्छे लिखे। शादाब का निर्देशन हालांकि सटीक रहा है लेकिन कमज़ोर पटकथा के चलते वह मजबूर दिखे। यह फिल्म एम.एक्स प्लेयर पर मुफ्त में उपलब्ध है। लेकिन बीच-बीच में बहुत सारे विज्ञापन आते हैं और फिल्म इतनी दिलचस्पी व उत्सुकता नहीं जगा पाती कि दर्शक विज्ञापन खत्म करके लौटने को बेचैन दिखे। इसी प्लॉट पर वह एक शॉर्ट-फिल्म बनाते तो बेहतर होता। उम्दा बात कहने के बावजूद डेढ़ घंटे इस फिल्म के लिए बहुत लंबे हैं। फिल्म का अंत भी अधपका रह गया।
पंडित बने सिद्धार्थ भारद्वाज ने बेहतरीन काम किया है। उन्होंने अपने रहस्यमयी किरदार की आभा को बखूबी दर्शाया है। कुसुम बनी पूजा गुप्ता ने भी उम्दा काम किया है। बाकी लोग कच्चे रहे। कैमरे, संगीत,
संपादन जैसे तकनीकी पक्ष हल्के रहे।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
अपरिचित तो पा' जी मेरी पसंदीदा फिल्मों में पहली 10 में आती है। उसका तो जवाब ही नहीं। 😍
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