जिस फिल्म के आने से पहले ही सोशल मीडिया के तथाकथित, स्वयंभू, कुकुरमुत्ते ‘फिल्म समीक्षकों’ ने उसकी चीर-फाड़ के लिए अपने नाखून और दांत पैने कर लिए हों और जिसके आते ही इन लोगों में इस फिल्म की धज्जियां उड़ाने की होड़ लग गई हो और जिस फिल्म के आने के बाद यह भी पता चला गया हो कि उसके अंदर परोसा गया माल एक सुगंधित कचरे से ज़्यादा कुछ नहीं है,
उस फिल्म को देखना और फिर उसका रिव्यू करना अपने-आप में एक बेहद जोखिम भरा काम है। लेकिन इससे ज़्यादा बड़े जोखिम फिल्म पत्रकारिता के अपने लंबे सफर में उठाए हैं तो भला इससे क्या डरना। तो चलिए, शुरू करते हैं ज़ी-5 पर रिलीज़ हुई ‘राधे’ नाम की इस मोस्ट अनवांटेड फिल्म का रिव्यू जिसे कोई नहीं देखना चाहता था लेकिन जिसे सबने देखा ताकि उसकी खिल्ली उड़ाई जा सके।
शुरूआत कहानी से ही करते हैं। हंसिए मत, यह फिल्म 2017 में आई दक्षिण कोरिया की फिल्म ‘द आउटलॉज़’ का ऑफिशियल रीमेक है और ‘द आउटलॉज़’ जो थी वह खुद कुछ सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म थी। यानी एक ठीक-ठाक सी कहानी तो होगी ही न इस फिल्म में तभी तो सलमान भाई का मन इस पर आया होगा। तो कहानी यह है साहेबान, कि मुंबई शहर में एक नया ड्रग माफिया आया है और बच्चे-जवान उसकी बेची नशीली दवाइयां ले-लेकर मर रहे हैं। और जब पूरी मुंबई पुलिस फेल हो तो ज़िम्मा मिलता है हमारे हीरो राधे को जो मुंह से कम और गोलियों से ज़्यादा बोलता है। लेकिन हमारी फिल्मों के हर ईमानदार और दबंग पुलिस अफसर की तरह वह सस्पैंड है। तो क्या हुआ?
उसे घर से बुलाते हैं,
ड्यूटी पर लगवाते हैं, हीरोइन संग नचवाते हैं और गुंडों की खाट खड़ी करवाते हैं। बजाइए ताली...!
अब बताइए, क्या खराबी है इस कहानी में। सलमान खान की फिल्म हो,
जिसमें भाई ने दबंग पुलिस वाले का रोल किया हो, उसमें ऐसी ही कहानी तो मिलेगी। तो फिर अचरज कैसा...?
रही इस कहानी को पर्दे पर उतारने की बात,
तो जिस फिल्म में सलमान खान हीरो हों, निर्माता भी वह खुद हों,
उस फिल्म की कहानी किस रंगीनियत के साथ और किस स्टाइल में पर्दे पर उतारी जाएगी, क्या आपको नहीं पता? और जब पता है तो शिकायत कैसी...! सलमान की, या किसी भी दूसरे हीरो की इस किस्म की फिल्मों में कहानी की एक बॉडी भले ही होती हो लेकिन उस बॉडी में ब्लैडर, फेफडे की जगह होगा या लिवर, किडनी की जगह, इसकी कोई गारंटी न पहले होती थी और न ही इस फिल्म में है। और वैसे भी सलमान खान जिस किस्म के ‘एंटरटेनमैंट’ के लिए जाने जाते हैं, उसमें लॉजिक या दिमाग की ज़रूरत आपको भले पड़ती हो, उनके अंधभक्तों ने इसकी परवाह कभी नहीं की। तो कुल मिला कर माजरा यह कि आप छोले-कुलचे की दुकान पर जाकर पाव-भाजी मांगें और बाद में छोले-कुलचे खाते हुए यह कहें कि यार, तेरे छोले में भाजी का और कुलचे में पाव का स्वाद नहीं है,
तो मूरख आप है, दुकानदार नहीं।
अब बात डायरेक्शन की। जी हां, ‘भाई’ की फिल्मों में भी एक डायरेक्टर तो होता ही है,
भले ही वह शूटिंग के दौरान सैट पर आता हो या नहीं। तो यहां बतौर निर्देशक प्रभुदेवा का ‘नाम’ दिया गया है। अब प्रभु को अपने ‘नाम’ की कितनी परवाह है,
यह हमें ‘दबंग 3’, ‘एक्शन जैक्सन’,
‘आर-राजकुमार’ जैसी फिल्मों में वो दिखा चुके हैं। और जब,
प्रभु को अपने नाम की महिमा गिरने से फर्क नहीं पड़ता, तो हम भला कौन होते हैं उनके काम में मीनमेख निकालने वाले। बजाइए, उनके लिए भी ताली...!
और अब बारी एक्टिंग की। एक्टिंग यानी वो चीज़ जो कैमरे के सामने की जाती है। और एक्टिंग करने के लिए गढ़ने पड़ते हैं किरदार। लेकिन जब फिल्म सलमान की हो तो उनके अलावा फिल्म में बाकी लोगों के लिए मज़बूत किरदार गढ़ने का मतलब है सलमान भाई से दुश्मनी मोल लेना। तो इस फिल्म में ए.सी. मुग़ल व विजय मौर्य जैसे ‘लेखकों’ ने अक्लमंदी दिखाते हुए कोई दुश्मनी मोल नहीं ली है। सलमान भाई राधे हैं जो चेहरे पर झलकती पचपन की उम्र में भी बचपना किए जा रहे हैं और बाकी सब लोग उन्हें झेल भी रहे हैं। जैकी श्रॉफ सीनियर पुलिस अफसर बने हैं जिन्होंने कसम खा ली है कि मुझे पैसे दो और फिर चाहे मुझे जोकर बनाओ या भांड, कोई फर्क नहीं। दिशा पटनी बॉडी से उजली और दिमाग से पैदल नायिका के रोल में हैं। रणदीप हुड्डा समेत सारे गुंडे लोग चक्कू-छुरी वाले गरीब हैं वरना ढिशुम-ढिशुम की जगह ठांय-ठांय करते। गाने चमकीले हैं, दृश्य रसीले हैं,
एक्शन कसा हुआ है और डायलॉग ढीले हैं। और कुछ...?
चलते-चलते : 2010
में ‘दबंग’ के रिव्यू में मैंने लिखा था-‘‘यह फिल्म मज़ा देती है,
लेकिन यह ठीक उसी तरह का मज़ा है जो अक्सर अपनी चमड़ी पर हो गए दाद को खुजाने में आता है। एक ऐसा आनंद जो क्षणिक है लेकिन जिसका भविष्य दाद के कोढ़ बनने की आशंका से घिरा है।’’ तो ‘भाई’ के अंधभक्तों, कोढ़ मुबारक हो...!
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है?
रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां,
इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’
के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
जबरदस्त समीक्षा, इससे बढ़िया समीक्षा नही हो सकती। दाद को खुजाने का आनंद
ReplyDeleteजबरदस्त समीक्षा, इससे बढ़िया समीक्षा नही हो सकती। दाद को खुजाने का आनंद
ReplyDeleteHahaha, majja aagaya
ReplyDeleteGood one sir
ReplyDeleteजबरदस्त । ऑंखभक्तो को कोढ़ मुबारक 😛
ReplyDeleteसमीक्षा पढ़कर फिल्म को देखना या छोड़ना ,
ReplyDeleteबहुत आसान हो जाता है ।।
सटीक और उम्दा लेखन की बधाई ।।।
Bahut sateek sameeksha ki hai aapne
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