हॉरर फिल्में मुझे निजी तौर पर काफी पसंद हैं। मेरी तरह बहुतेरे लोग हैं जो सिनेमा के पर्दे से टपकते ‘डर’ को देख कर आनंदित होते हैं। मैं यह भी स्वीकार करना चाहूंगा कि डरावनी या हॉरर फिल्में देखते हुए मुझे आमतौर पर डर नहीं लगता। लेकिन जितना मुझे पवन कृपलानी की ‘रागिनी एम.एम.एस.’ ने डराया था उतना शायद किसी और फिल्म ने नहीं। मैं आज तक इस फिल्म को दोबारा नहीं देख पाया। उनकी ‘डर एट द मॉल’ भी मुझे अच्छी लगी थी। ऐसे में उन्हीं की तीसरी फिल्म ‘फोबिया’ देखने के विचार से ही मैं उत्साहित था। लेकिन मेरे उत्साह पर इस फिल्म ने पानी बिखेर दिया-ठंडा पानी...!
फोबिया यानी डर-किसी खास चीज का डर, किसी जगह का डर या किसी खास विचार का डर। इस फिल्म की नायिका को एक हादसे के बाद घर से बाहर जाने में डर लगता है,
अनजान लोगों को देखते ही वह घबरा जाती है। जाहिर है ऐसे में उसके परिवार वाले उसकी ज़्यादा देखभाल करेंगे, उसे अपने साथ बाहर ले जाकर उसका डर दूर करना चाहेंगे, उसे अकेले रहने ही नहीं देंगे। मगर नहीं, उसका दोस्त उसे एक ऐसे बड़े घर में अकेले रहने के लिए ले जाता है जहां पहले से ही कुछ अजीबोगरीब हो रहा है। फिर फिल्म अपना ‘फोबिया’ वाला ट्रैक छोड़ कर सुपरनैचुरल वाली पटरी पर चलने लगती है तो इसका सारा कॉन्सैप्ट ही बेकार लगने लगता है।
पवन के निर्देशन में कमी नहीं है लेकिन कहानी का पलटना और स्क्रिप्ट का उलझना इसे ऊपर नहीं उठने देता। राधिका आप्टे जैसी समर्थ अभिनेत्री भी अपने किरदार के हल्केपन के चलते कहीं-कहीं बेबस नजर आती हैं। सिर्फ उनके अभिनय और दो-एक शॉकिंग शॉट्स के लिए इस फिल्म को देखना हो तो देखें, वरना छोड़ दें।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(नोट-मेरा यह रिव्यू इस
फिल्म की रिलीज़ के समय 27
मई,
2016 को किसी पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था। अब यह फिल्म ज़ी-5 पर देखी जा सकती है।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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