-दीपक दुआ...
(Featured in IMDb Critics Reviews)
पता नहीं रणबीर कपूर जान-बूझ कर ऐसी फिल्में करते हैं या फिल्मकार उन्हें ऐसी कहानियों में फंसा लेते हैं।
एक हैंडसम नौजवान। मां या बाप से उसकी बनती नहीं। करना कुछ चाहता है (आमतौर पर कोई क्रिएटिव काम), मगर कर कुछ और रहा है। कोई लड़की आती है, दिल टूटता है तो उसके अंदर की रचनात्मकता की लौ ज्वाला बन कर भभक पड़ती है। रिश्तों को लेकर भी उसके मन में कन्फ्यूज़नें भरी पड़ी हैं। किसी रिश्ते को वह किसी और नजर से देखता है मगर सामने वाले के लिए वह रिश्ता कुछ और मायने रखता है। इस कहानी की एंडिंग हैप्पी या ट्रेजेडिक, कुछ भी हो सकती है।
कहिए, कितनी फिल्में याद आईं? ‘वेकअप सिड’, ‘रॉकस्टार’, ‘यह जवानी है दीवानी’, ‘तमाशा’...! चलिए, इसमें और भी कुछ मिलाते हैं। ‘कल हो ना हो’, ‘कॉकटेल’ और ऐसे ही फ्लेवर वाली तमाम फिल्मों के अलावा ढेरों हिट हिन्दी फिल्मों के रेफरेंस, संवाद और गीतों के बोल डाल कर करण जौहर ने इस फिल्म का जो ढांचा खड़ा किया है, वह नया न होने के बावजूद आंखों को सुहाता है, कानों को अच्छा लगता है और कई जगह दिल को सुकून भी देता है। वैसे भी करण (और उनकी मंडली के दूसरे फिल्मकार) आंखों और कानों को सुहाती ऐसी रंग-बिरंगी, लकदक फिल्में बनाना ही ज्यादा सही समझते हैं। करण सीनियर हैं सो वह ये सब मैच्योरिटी के साथ दिखा पाते हैं।
बेहद अमीर किरदार, पल में रिश्ते बनाते, अगले पल में हमबिस्तर होते, पानी की तरह शराब पीने वाले, पीकर बहकी-बहकी मगर बेहद गहरी बातें करते, आमतौर पर अकेले, अंदर से खोखले और किसी संबल को तलाशते, मिल जाने पर उसे कस कर पकड़ने की कोशिश में लगे ऐसे किरदार हमारे आसपास भले ही ज्यादा न दिखते हों लेकिन रुपहले पर्दे पर इनकी यह दुनिया देखना ललचाता है। चमकीले चेहरों, लुभाती विदेशी लोकेशनों, भव्य शादियों, दिलों के टूटने-जुड़ने की इन कहानियों के जरिए दिखाई जाने वाली यह दुनिया और किसी को भले न भाए, युवा वर्ग इससे खासा मोहित नजर आता है।
रणबीर कपूर इस किस्म के किरदारों को कई दफा निभा चुके हैं और इस बार भी वह अपने किरदार की ऊंच-नीच को बखूबी समझते और एक्सप्रेस करते दिखे हैं। ऐश्वर्या राय बच्चन बला की खूबसूरत लगी हैं लेकिन उनका किरदार साधारण है जिसे वह सलीके से निभा ले जाती हैं। उनकी और रणबीर की जोड़ी में से कैमिस्ट्री गायब है। कमाल का काम तो अनुष्का शर्मा का है जो अपने चुलबुले किरदार को अपनी चुहल भरी अदाओं से मनभावन बना देती हैं। सच तो यह है कि जब-जब पर्दे पर अनुष्का होती हैं, फिल्म चलती दिखाई देती है वरना इंटरवल के बाद तो इसकी धीमी रफ्तार पर कोफ्त होने लगती है। संवाद अच्छे हैं लेकिन ये बहुत ज्यादा हैं। एक संवाद अंदर जाकर अभी कायदे से जज़्ब हुआ भी नहीं होता कि अगला आ जाता है। पर्दे पर घटनाएं देखने वालों को यह डायलॉगबाजी कम पसंद आएगी। फवाद खान काफी कम समय के लिए और काफी हल्के किरदार में आए हैं। फिल्म के गाने देखने और सुनने में काफी अच्छे लगते हैं। लखनऊ के एक निहायत ही उर्दूदां मुस्लिम परिवार में शादी के समय पंजाबी गाना बजाना कहानी की पृष्ठभूमि से ज्यादा बाजार की जरूरत महसूस होता है।
इस फिल्म में रिश्तों का कॉकटेल है। कॉकटेल समझते हैं न? अलग-अलग किस्म की ड्रिंक्स एक साथ, एक ही समय। हजम होता हो तो यह फिल्म देखिए। पीकर उलटी करनी हो तो फिर इससे दूरी ही भली।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
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