-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
यह फिल्म शुरू होती है एक अजीब से पागलखाने में। (वैसे हिन्दी फिल्मों में ऐसे पागलखाने देखने के बाद कभी-कभी मेरी इच्छा होती है कि मैं किसी असली पागलखाने में जाऊं और देखूं
कि क्या पागलखाने सचमुच ऐसे ही होते हैं या ये फिल्म वाले हमें पागल बनाते रहते हैं।) खैर, यह फिल्म पागलखाने से क्यों शुरू होती है, इसका कोई कारण स्पष्ट नहीं होता मगर थोड़ी देर में यह जरूर समझ में आने लगता है कि हम दर्शक थिएटर में नहीं बल्कि एक फिल्मी पागलखाने में बैठे हैं जहां क्या हो रहा है, यह तो फिर भी समझ में आता है, लेकिन क्यों हो रहा है और यह होना कितना जरूरी है, यह बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ता।
पुरानी दिल्ली के सात ऐसे किरदार जिनकी किस्मत में धक्के खाना और नाकाम होना ही लिखा है। जो जोड़-जुगाड़ करके अपनी जिंदगी चला रहे हैं। एक बड़ी डकैती करके अपनी जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर लाने के मकसद से ये मिलते हैं लेकिन यह भी इनके लिए इतना आसान नहीं होता।
फिल्म में बाकायदा एक कहानी है, सभी किरदारों की एक पृष्ठभूमि है, उनकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं, रफ्तार है, एक चुटीलापन भी है और आगे क्या होने जा रहा है, उसे जानने की उत्सुकता भी यह फिल्म बनाए रखती है। लेकिन इस कहानी को जिस तरह से बिखेरा
गया है, स्क्रिप्ट के नाम पर जो रायता फैलाया गया है और किरदारों का जो मजमा इक्ट्ठा किया गया है, वह न सिर्फ समझ से परे है बल्कि बेवजह भी है। ज्यादातर वक्त तो फिल्म निर्देशक के हाथ से फिसल कर अपनी मर्जी से कभी इधर तो कभी उधर चलती दिखाई देती है। क्लाईमैक्स में फालतू के उपदेश ठूंस कर डायरेक्टर ने इस कहानी का और कबाड़ा कर दिया।
मनोज वाजपेयी, विजय राज़ और के.के. मैनन ने सधा हुआ काम किया है। अन्नू कपूर और अनुपम खेर को यह फिल्म व्यर्थ गंवाती है। कई फिल्में कर चुकीं अदिति शर्मा को इस बार बड़ा मौका मिला और वह अपनी मौजूदगी साबित कर गईं। छोटी-छोटी भूमिकाओं में आए कलाकार अच्छा काम कर गए। म्यूजिक काफी कमजोर है। काबिल कलाकारों के साथ-साथ एक अच्छे कॉन्सेप्ट की पर्दे पर यूं बर्बादी देख कर अफसोस होता है।
फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है इसमें बेवजह ठूंसी गईं गालियां और अश्लील संदर्भ। पुरानी दिल्ली सिर्फ गलियों और गालियों की ही जगह नहीं है। वहां एक संस्कृति भी पनपती है, निर्देशक इसे समझ पाते तो यह फिल्म ऊंचा मकाम पा सकती थी।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
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