Saturday, 8 September 2018

रिव्यू-‘हल्का’-एक हल्की टॉयलेट कथा

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली की एक झोंपड़पट्टी। गरीबी, अशिक्षा, गंदगी, कीचड़। कोई टॉयलेट नहीं। नज़दीक की
रेलवे लाइन पर हल्केहोते सब लोग। टॉयलेट के लिए मिलने वाले सरकारी पैसे से ऐश करते लोग। उस पैसे को देने की एवज में रिश्वत मांगते सरकारी अफसर। स्कूल जाने की बजाय कचरा बीनते बच्चे। इन्हीं बच्चों में से एक पिचकू। सबके सामने हल्काहोने में उसे शर्म आती है। पिता टॉयलेट बनवाने को तैयार नहीं। बच्चा खुद ही यह बीड़ा उठाता है।

कहने को स्वच्छ भारत और शौचालय की ज़रूरत की बात करती है यह फिल्म। लेकिन इस बात को कहने के लिए जिस किस्म की कहानी ली गई है, वह सिरे से पैदल है और उस पर जो स्क्रिप्ट तैयार की गई है, वो निहायत ही बचकानी है। हल्केहोते समय किसी इंसान की निजता और गरिमा को बनाए रखने की ज़रूरत की बात इसमें सिर्फ नज़र आती है, महसूस नहीं होती। पूरी बस्ती के लोग, मर्द, औरतें, बच्चे रेल की पटरी पर हल्केहोते हैं लेकिन किसी को अपनी ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं। और वह बच्चा भी कोई अलख नहीं जगा रहा है, बस, पैसे जोड़-जोड़ कर एक टॉयलेट बनाने की जुगत में है। एक महंगे स्कूल में पढ़ने वाले अमीर बच्चे उसकी जिस तरह से मदद करते हैं, वो मदद कम और भीख ज़्यादा लगती है। इसी महंगे स्कूल के पैसे से बनी फिल्म से और भला उम्मीद हो भी क्या सकती थी?

ज़मीन से जुड़ी इस कहानी का प्रवाह बहुत ही बनावटी है और यही कारण है कि इसे देखते हुए आप इससे जुड़ नहीं पाते। फिर हल्केहोने के सीन इसमें इस कदर विस्तार से हैं कि इसे देखते समय कोफ्त होने लगती है। दिल्ली पर ढेरों फिल्में आई हैं। लेकिन दिल्ली की इतनी खराब तस्वीर शायद ही किसी फिल्म में आई हो। और हां, इसे देखने के दौरान कुछ खाने-पीने की तो आप सोच भी नहीं सकते। क्योंकि, सोच के आगे... शौच है।

हैरानी और अफसोस इस बात का भी है कि यह फिल्म उन नीला माधव पांडा की है जो आई एम कलाम’, ‘जलपरीऔर कड़वी हवाजैसी असरदार फिल्म बना चुके हैं। असर तो उन्होंने इसमें भी भरपूर डालने की कोशिश की लेकिन अपनी हल्की कहानी, हल्के सैटअप और उतने ही हल्के डायरेक्शन के चलते यह एक बहुत ही हल्की फिल्म बन कर रह गई। इस पर तो 20-30 मिनट की शॉर्ट-फिल्म बनाई जानी चाहिए थी, बस। रणवीर शौरी, पाओली दाम, कुमुद मिश्रा, किसी की भी एक्टिंग दिल को नहीं छू पाती क्योंकि उनके किरदारों में ही दम नहीं है। पिचकू बने तथास्तु का काम साधारण है। म्यूज़िक, कैमरा भी सब हल्का रहा। सिर्फ अपने विषय के चलते यह फिल्म कहीं पुरस्कार भले बटोर ले लेकिन असल में यह फिल्म एक दुरुपयोग है-पैसों का, संसाधनों का, वक्त का, एक अच्छे फिल्मकार की उर्जा का और सबसे बढ़ कर सिनेमा का।
अपनी रेटिंग-एक स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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