दो परिवार। दोनों में अदावत। दोनों के बच्चे आपस में प्यार कर बैठे। घरवालों ने
उन्हें जुदा कर दिया तो दोनों ने एक-दूसरे के लिए तड़पते हुए जान दे दी। यही तो कहानी
थी ‘लैला मजनू’ की। इसी कहानी पर बरसों
से फिल्में बनती रहीं। कामयाब भी होती रहीं। क्यों...? क्योंकि उनमें मोहब्बत की वो तासीर थी कि दिल सायं-सायं करता था। भावनाओं के वो
दरिया थे जो हमारी आंखों से बहते थे। इश्क का वो रूहानी अहसास था जो सिर्फ महसूस किया
जा सकता है, बयान नहीं। लेकिन अफसोस, इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो आपको छू तक सके।
कश्मीर में रहती लैला को अपने पीछे सारे शहर के लड़के टहलाना अच्छा लगता है। कैस रईस बाप का बिगड़ैल लड़का है। लेकिन लैला से मिलता है तो बदलने लगता है। लैला के पिता उसकी कहीं और शादी कर देते हैं तो कैस चार साल के लिए लंदन चला जाता है। चार लंबे साल... और इन प्रेमियों के मन में कोई टीस नहीं उठती। यह बात ही हजम करने लायक नहीं है। चार साल बाद दोनों मिलते हैं तो फिर से दीवानगी जाग उठती है। इस बार इन्हें सिर्फ चार महीने एक-दूसरे से दूर रहना है जिसके बाद इनकी शादी हो सकती है। लेकिन इनसे चार महीने भी नहीं कटते। यार,
हद है राइटर साहब,
फिल्म की टिकट के साथ हाजमे की गोली भी दे दो। हमें रोमांटिक फिल्में पसंद हैं तो आप कैसा भी कचरा परोसोगे...?
इस किस्म की कहानियों में इश्क की जो ज़रूरी गर्माहट होनी चाहिए, वह इस फिल्म में सिरे से गायब है। कहीं पर भी,
ज़रा-सा भी तो नहीं छू पाती यह फिल्म। पर्दे पर इज़हार-ए-मोहब्बत हो रहा है और आप लकड़ी बने बैठे हों तो गलती आपकी नहीं, लेखक और निर्देशक की है। पर्दे पर लैला का जनाज़ा उठे और आप शुक्र मनाते हुए कहें कि मजनू भी मरे तो फिल्म खत्म हो, तो इसका मतलब यह नहीं कि आप के भीतर मोहब्बत की कुलबुलाहट नहीं है,
बल्कि इसका मतलब यह है कि फिल्म बनाने वाले उस कुलबुलाहट को छू ही नहीं पाए।
रूमानी फिल्में लिखने में महारथी रहे इम्तियाज़ अली से इस कदर पैदल स्क्रिप्ट की उम्मीद नहीं थी। उनके भाई साजिद अली की बतौर निर्देशक यह पहली फिल्म है और जिस तरह के हल्के सैटअप में इसे तैयार किया गया है,
उससे शक होता है कि इम्तियाज ने कहीं उनसे बचपन में छीने गए किसी खिलौने या लॉलीपॉप की खुंदक तो नहीं निकाली। वरना इम्तियाज़ के नाम पर कायदे के कलाकार तो फिल्म में आ ही सकते थे। नए कलाकार भी लिए तो ऐसे जिनसे पूरी फिल्म तक नहीं संभल सकी। लैला बनीं तृप्ति डिमरी खूबसूरत तो लगीं लेकिन प्रभावी नहीं। अविनाश तिवारी शुरू में अच्छे लगते-लगते अंत तक आते-आते प्रभावहीन हो गए। कश्मीर की कहानी और एक-दो को छोड़ कर किसी भी कलाकार के संवादों में कश्मीरी लहज़ा न हो तो लगता है कि मेहनत करने से बचा गया है। और हां, आज के दौर की इस कहानी में कश्मीर के मौजूदा हालात का अगर ज़िक्र तक न हो,
तो आप उस फिल्मकार को क्या कहेंगे?
क्या वह देश-समाज से इतना कटा हुआ है? म्यूज़िक दो-एक जगह ही असर छोड़ पाया है।
सच तो यह है कि जब सब कुछ बेहद कमज़ोर,
हल्का,
रसहीन,
स्वादहीन,
गंधहीन हो तो उस कचरे में मौजूद इक्का-दुक्का अच्छी चीज़ें भी असर छोड़ने की बजाय चुभने-सी लगती है। और इसीलिए यह फिल्म न सिर्फ सिनेमा के,
बल्कि रूमानी कहानियों तक के माथे पर लगा एक दाग है।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
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