-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली से सटा यू.पी. का कोई कस्बा। एक बिल्कुल ही आम परिवार। अभावों से जूझता। न रहने को ढंग की जगह, न सुविधाएं, न जेब भर पैसा, न कायदे का काम। फिर भी सब बढ़िया है। बीवी ममता के कहने पर मौजी भैया नौकरी छोड़ कर लग गए ‘अपना ही कुछ’ करने। ढेरों अड़चनें आईं। कुछ अपनों ने साथ छोड़ा तो कुछ परायों ने हाथ बंटाया। लेकिन हिम्मत न हारी दोनों ने और जुटे रहे। अंत में तो इन्हें जीतना ही हुआ।
फिर इन किरदारों में जिन कलाकारों को लिया गया है वो भी तो कमाल के हैं। लगता ही नहीं कि ये किसी फिल्म में काम कर रहे लोग हैं। लगता है, पीछे वाली बस्ती के लोगों को उठा कर कैमरे के सामने खड़ा कर दिया है। अम्मा, बाऊजी, जुगनू, कुमुद, बंसल साहब... सब के सब लाजवाब। यश राज की कास्टिंग डायरेक्टर शानू शर्मा एक बार फिर से काबिल-ए-तारीफ काम करती दिखाई दी हैं। इन कलाकारों के मेकअप, इनके कॉस्टयूम के तो कहने ही क्या। रघुवीर यादव के काले-सफेद बाल हों या वरुण धवन का पाजामा, सब यथार्थ लगता है। कितनी मेहनत की होगी, इस फिल्म की यूनिट ने इस सारे माहौल को रचने में, इसे फिल्म देखते हुए साफ महसूस किया जा सकता है। बतौर कप्तान शरत कटारिया तारीफ के साथ-साथ पुरस्कारों के भी हकदार हुए जा रहे हैं।
वरुण ग्रोवर के गीतों और अनु मलिक के संगीत की चर्चा खासतौर से ज़रूरी है। इस फिल्म के गाने धूम नहीं मचाते, एकदम से नहीं भाते, लेकिन ये कहानी में इस कदर रचे-बसे हैं कि अगर इन्हें ध्यान से सुना जाए तो इनके बोल रसीले लगने लगते हैं। ‘कभी शीत लागा, कभी ताप लागा... तेरा चाव लागा जैसे कोई घाव लागा...’
‘खटर पटर ज़िंदगी ने राग है सुनाया, बटन खुले काज से तो बकसुआ लगाया...’,
‘तू ही अहम, तू ही वहम...’ जैसे बोल और वो चलती बस में हिलती-डुलती सवारियों वाली कोरियोग्राफी, वाह दिनेश मास्टर, क्या खूब हिलाया सबको।

अभावग्रस्त और बिल्कुल नीचे से उठ कर कुछ बड़ा हासिल करने की ‘अंडरडॉग’ किस्म की कहानियां दर्शकों को हमेशा से लुभाती रही हैं। लेकिन यह कहानी सिर्फ मौजी और ममता की ही नहीं है। उनकी हिम्मत, संघर्ष, मेहनत से कुछ बड़ा हासिल करने की ही नहीं है। बल्कि यह अपने भीतर और भी बहुत कुछ ऐसा समेटे हुए है जिसके बारे में मुख्यधारा का सिनेमा आमतौर पर बात नहीं करता है। या कहें कि बॉक्स-ऑफिस के समीकरण उसे ऐसा करने से रोकते हैं।
फिल्म बताती है कि मौजी के मौहल्ले में तमाम वो लोग रहते हैं जो एक ही गांव के हैं और असल में हाथ के कारीगर हैं। वक्त की तेज रफ्तार ने इनके काम छीने तो ये लोग इस शहर में आकर रहने लगे और छोटे-मोटे काम करके गुजारा कर रहे हैं। कोई ऑटो-रिक्शा चलाता है, कोई चाट का ठेला लगाता है, किसी की पान की दुकान है तो मौजी जैसा कोई किसी दुकान में मालिक का कुत्ता बना हुआ है। फिल्म बताती है कि इन्हें कोई सहारा मिले, अवसर मिलें तो इन्हें यूं जूझना न पड़े। फिल्म बिना पक्षपाती हुए दिखाती है कि बड़े कारोबारी और बिचैलिए किस तरह से कारीगरों का हक मारते हैं और उन्हें कारीगर की बजाय नौकर बने रहने पर मजबूर करते हैं। किस तरह से ये लोग बाजार में सस्ते दामों पर मिल सकने वाली चीजों को अपने लालच की खातिर महंगे में उपलब्ध कराते हैं। फिल्म यह भी दिखाती है कि अभावों से जूझते इंसान को अपने स्वाभिमान और मेहनत से ज्यादा किसी की गुलामी और उस गुलामी से मिलने वाले पैसे अच्छे लगने लगते हैं।
हालांकि फिल्म देखते समय इसकी कहानी में कोई खास गहराइयां या ऊचाइयां नहीं दिखतीं। लेकिन इसकी स्क्रिप्ट का बहाव और उसकी करवटें आपको लगातार बांधे रखती हैं। बहुत जल्द आपको मौजी और ममता से प्यार हो जाता है और मन इनकी कामयाबी की दुआ मांगने लगता है। दर्शक का दर्शक न रह कर किरदारों से यूं जुड़ जाना कम ही होता है और बतौर राईटर शरत कटारिया ने इस काम को अपनी पिछली फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ की तरह इस बार भी बखूबी अंजाम दिया है। शरत के भीतर अपने किरदारों के अंतस में उतरने की जो क्षमता इन दोनों फिल्मों में नज़र आती है, वह उन्हें एक लेखक के तौर पर अलग और ऊंचे मकाम पर खड़ा करती है। इन किरदारों की सोच, इनके बर्ताव को सामने लाते छोटे-छोटे संवाद मारक असर करते हैं। अम्मा का फिसलने के बाद भी घर के काम की चिंता करना, अचार की बरनी में ममता का हाथ फंसना, पड़ोसी का ऐन वक्त पर अपनी सिलाई मशीन उठा ले जाना और ज़रा-सी मनुहार से मान जाना, नौशाद का मस्जिद में मदद देने से इंकार न करना... ऐसा बहुत कुछ है फिल्म में जो ‘फिल्मी’ नहीं है और इसीलिए दिल छूता है, टटोलता है, उसमें उतर-सा जाता है।

वरुण धवन बार-बार बताते हैं कि उन्हें सलीके का किरदार और कायदे का निर्देशक मिले तो वह क्या कुछ कर सकते हैं। और जिस अनुष्का शर्मा को ट्रेलर में बिसूरते देख आपने उसे ट्रोल किया था न, उसे पर्दे पर देख कर अगर उसकी कोशिशों पर प्यार और बेबसी पर आंखें नम न हों, तो कहिएगा। रघुवीर यादव और यामिनी दास बाऊजी और अम्मा के रोल में बखूबी ढले। बाकी सब कलाकार भी खूब जंचे भले ही कोई एक बार दिखा हो या दो बार। गुड्डू बने नमित दास हों, नौशाद बने भूपेश सिंह या हरलीन बेदी बनीं पूजा सरूप, सब विश्वसनीय लगे।

इक्का-दुक्का जगह फिसलती, थमती इस फिल्म में वो सब है जो आपको साफ-सुथरे मनोरंजन के तौर पर पसंद है। बिना किसी शर्म-झिझक के आखिरी बार परिवार के साथ बैठ कर कौन-सी फिल्म देखी थी आपने? नहीं याद, तो इसे देख लीजिए क्योंकि इसमें... सब बढ़िया है।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए
हैं।)
Awesome..
ReplyDeleteशुक्रिया...
DeleteThanks
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteबहुत अच्छा , अब ये वाली देखूंगा - अभिराज
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