-दीपक दुआ...
एक कोठा। उसका एक खूंखार मालिक। कुछ लड़कियां। कोई हंस कर तो कोई रो कर अपने ‘काम’ को करती लड़कियां। वहां लड़कियां बेच कर जाते हैं लोग। कोई अपनी प्रेमिका, कोई भतीजी तो किसी और को बेच जाता है वहां। लेकिन जब वहां एक बच्ची लाई जाती है तो उसे वहां से निकालने के लिए जुट जाते हैं सब लोग।
फिल्म की कहानी बुरी नहीं। लेकिन दिक्कत है इस कहानी को फैलाने के लिए लिखी गई स्क्रिप्ट के साथ। इस कदर पैदल,
धीमी और दोहराव लिए हुए है यह,
कि शुरू के दस मिनट के बाद इसे झेलना भारी हो जाता है।
आमतौर पर इस किस्म की फिल्में आपको चुभती हैं,
कचोटती हैं,
आपके अंतस में उतरती हैं या फिर कुछ कह कर जाती हैं। लेकिन इस फिल्म के साथ ऐसा कुछ भी नहीं होता तो उसकी पहली वजह है इसका लचर लेखन। जहां नाटकीयता चाहिए, वहां नहीं है। जहां नहीं चाहिए, वहां ढेर सारी है। जहां संवाद होने चाहिएं, वहां से लापता हैं और जहां नहीं होने चाहिएं वहां बेवजह की बातें ठूंसी गई हैं। इससे पहले ‘परांठे वाली गली’
बना चुके लेखक-निर्देशक सचिन गुप्ता अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। उनका निर्देशन सिरे से पैदल है। इतने खराब ढंग से तो अब भोजपुरी फिल्में भी नहीं बनतीं।
कलाकार सारे के सारे हल्के हैं। म्यूज़िक भी। बाकी सब कुछ भी। और फिल्म का नाम ‘पाखी’ क्यों हैं,
यह भी स्पष्ट नहीं है। वैसे भी अगर किसी राईटर-डायरेक्टर के पास अपनी कहानी को देने के लिए एक कायदे का नाम तक न हो समझ जाइए,
वह खुद उसे नहीं समझ पाया है,
आपको क्या समझाएगा।
अपनी रेटिंग-एक स्टार
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