-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
अहमदाबाद में एक निठल्ला लड़का। है तो इंजीनियर लेकिन शेफ बनना चाहता है। पर उसके पप्पा चाहते हैं कि वो एक अमीर आदमी का घरजंवाई बन जाए ताकि उनकी मुसीबत टले। इसी शहर की एक होशियार लड़की। बिजनेस करना चाहती है,
पढ़ने के लिए बाहर जाना चाहती है। पर उसके पप्पा चाहते हैं कि वो शादी करे और यहां से टले। उधर वो अमीर आदमी चाहता है कि उसका होने वाला (निठल्ला) दामाद पहले खुद को होशियार साबित करे। सो, यह निठल्ला लड़का और वो होशियार लड़की मिल कर एक बिज़नेस शुरू करते हैं जो चल निकलता है। अब लड़का-लड़की साथ होंगे तो ज़ाहिर है,
प्यार-व्यार तो होगा ही। अंत में सारे पप्पा लोग भी मान ही जाते हैं।
अब इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि 2014 में आई अपनी पहली फिल्म ‘फिल्मीस्तान’ के लिए बैस्ट हिन्दी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके निर्देशक नितिन कक्कड़ को अपनी अगली फिल्म के लिए हिन्दी के बाज़ार में एक कायदे की कहानी तक नहीं मिलती और उन्हें एक तेलुगू फिल्म की शरण में जाना पड़ता है। खैर। मूल तेलुगू फिल्म को हिन्दी में बदलते समय इसके लेखक शारिब हाशमी (जो बतौर एक्टर ‘जब तक है जान’, ‘फिल्मीस्तान’ और ‘फुल्लू’ में आ चुके हैं) ने इसे गुजरात के अहमदाबाद में फिट किया है और उनकी तारीफ में कहना पड़ेगा कि इस बदलाव के काम को उन्होंने बखूबी निभाया है। गुजराती पप्पाओं की सोच,
गुजराती युवाओं की व्यापार-कुशलता, गुजराती परिवारों का माहौल, सब कुछ बहुत ही विश्वसनीय ढंग से दिखाया गया है। यहां तक कि फिल्म में बहुत सारे संवाद भी गुजराती में हैं (भले ही उनमें से कुछ संवाद आपके पल्ले न पड़ें)।
डायरेक्टर नितिन कक्कड़ की तारीफ भी ज़रूरी है। उनके हाथ में जो स्क्रिप्ट दी गई, उसे उन्होंने बड़े ही कायदे से दिखाया, फैलाया, समेटा है। अब यह बात अलग है कि इस स्क्रिप्ट में ही खामियां हैं। यह युवाओं और पप्पाओं की सोच का फर्क तो दिखाती है लेकिन उसमें गहरे नहीं उतर पाती। यह लड़के-लड़की के बीच प्यार की बारिश महसूस भर करवाती है, सराबोर नहीं कर पाती। अंत में यह हमारे होठों पर बस हल्की मुस्कुराहट ही ला पाती है,
हमें गुदगुदा कर हमारे दिलों को भिगो नहीं पाती। फिल्म का कई जगह झोल खाना, धीमा हो जाना, बेवजह की बातों में उलझते जाना इसके असर को कम करता है। अहमदाबाद की रंगत को फिल्म भरपूर दिखाती है और मन करता है कि जाकर इस शहर को देखा जाए। लेकिन गुजरात जैसी ‘ड्राई-स्टेट’
में पात्रों को खुलेआम शराब पीते दिखाया जाना भी सहज नहीं लगता।
जैकी भगनानी को इसमें सुस्त, निठल्ला दिखना था और वो दिखे भी। लेकिन उन्हें अकेले हीरो बन कर आने की ज़िद छोड़ कर ‘गोलमाल’ टाइप मल्टीस्टारर फिल्मों में हाथ आजमाना चाहिए, ज़्यादा चलेंगे। टी.वी. से आईं कृतिका कामरा के पास खूबसूरती,
आत्मविश्वास और प्रतिभा, सब है। कायदे के रोल मिलें तो वह चल निकलेंगी। जैकी के दोस्त बने शिवम पारिख और प्रतीक गांधी अपने सधे हुए अभिनय से प्रभाव छोड़ते हैं। पप्पाओं के रोल में सुनील सिन्हा और मोहन कपूर उम्दा रहे लेकिन जैकी के पप्पा बने नीरज सूद बेमिसाल लगे। अपनी मंजी हुई अदाकारी से वह आपके दिल-दिमाग में जगह बनाते हैं। प्रतीक बब्बर वाला ट्रैक ही गैरज़रूरी था। उनका काम भी हल्का रहा। यह तो गनीमत है कि वो बस कुछ ही देर के लिए फिल्म में आए,
वरना अझेल हो जाते। गाने इक्का-दुक्का ही असरदार रहे। फिल्म खत्म होने के बाद आने वाला गाना बीच में कहीं आता तो ज़्यादा रंग जमाता।
अब आप पूछेंगे कि इस फिल्म का नाम ‘मित्रों’ क्यों है?
पूछिए। अजी पूछिए न...! इसका जवाब यह है कि-हमें क्या पता, हुंह...! कायदे से इस कहानी पर ‘मित्रों’ की बजाय ‘पप्पाओं’ नाम फिट बैठता है क्योंकि यह असल में उन पप्पाओं की सोच की ज़्यादा बात करती है जो अपनी उम्मीदें,
आकांक्षाएं,
सपने,
इरादे अपने बच्चों पर लादे बैठे हैं।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
मितरों रख रहे होंगे, गलती से मित्रों हो गया होगा 😂
ReplyDeleteहा... हा... हा...
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