-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
‘अगर आप मेरे अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते... तो इसका मतलब यह है कि ज़माना ही नाकाबिले बर्दाश्त है...।’
इतनी बेबाकी, ठसक और शिद्दत के साथ सआदत हसन मंटो नाम के जिस शख्स ने उम्र भर अपनी बात कही,
वह उम्र भर किस संघर्ष से होकर गुजरता रहा और अपने आखिरी दौर में वह किस कदर मजबूर था,
यह भला कौन जानता है?
और अगर इन संघर्षों और मजबूरियों से उसका साबका न हुआ होता तो क्या यह मुमकिन नहीं कि वह सिर्फ 42 की उम्र में दुनिया न छोड़ता...?
ऐसे बहुत सारे लोग इस धरती पर हुए जिनके होते हुए उन्हें दुत्कारा गया,
सताया गया,
उनके काम को कमतर आंका गया। लेकिन जिनके चले जाने के बाद लोगों को उनका महत्व समझ में आया और वे ज़माने के लिए लीजेंड हो गए। मंटो भी तो ऐसे ही शख्स थे। कई तरह के संघर्षों से जूझते हुए। एक तरफ अपने लेखन के लिए वाजिब कीमत वसूलने का संघर्ष। अपने लिखे को बिना काट-छांट किए छपवाने का संघर्ष। अपने लिखे को साहित्य ठहराने का संघर्ष। अपने लेखन पर लगने वाले अश्लीलता के आरोपों का सामना करने का संघर्ष। और इन सबके बरअक्स अपने परिवार की ज़िम्मेदारियां उठाने का संघर्ष। कितना कुछ है इस लेखक के बारे में,
जो वो पाठक भी शायद ही जानते हों जो खुद को मंटो का ‘बिग-फैन’
कहते हैं। नंदिता दास अपनी इस फिल्म में मंटो की कहानी को जिस तरह से सामने लाती हैं, वह शाबाशी वाली एक ज़बर्दस्त थपकी की हकदार हो जाती हैं।
महज ढाई घंटे में मंटो की ज़िंदगी को समेटना नंदिता के लिए कितना मुश्किल रहा होगा, इसे समझा जा सकता है। और नंदिता ने सिर्फ मंटो की कहानी को ही नहीं दिखाया है बल्कि उनकी लिखी कहानियों को भी इस कहानी में पिरोया है। और क्या खूब पिरोया है कि पता ही नहीं चलता कि कब आप कहानी के बाहर थे और कब उसके भीतर जा पहुंचे। मुमकिन है,
इन कहानियों से नावाकिफ लोग इस एक्सपेरिमैंट को न समझ पाएं। पर यह उन नावाकिफ लोगों की प्रॉब्लम है,
फिल्म की नहीं। फिल्म का माहौल रचने में,
अपने किरदारों को खड़ा करने में और उन किरदारों के माकूल कलाकारों का चयन करने में नंदिता एक और शाबाशी पाती हैं। फिल्म के संवाद खासतौर से उल्लेखनीय हैं। ‘पेंसिल से लिखा है तो यह मत समझिएगा कि मिट जाएगा’
से मंटो असल में अपने लेखन से ज़्यादा अपने वजूद का ज़िक्र करते मालूम होते हैं। कार्तिक विजय का कैमरा और उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का बैकग्राउंड म्यूज़िक फिल्म के रंग को और गाढ़ा करता है। गानों की बजाय सिर्फ नज़्में ही होतीं तो असर और बढ़ता। खासतौर से रफ्तार वाला गाना फिल्म के मूड में फिट नहीं बैठता।
नवाज़ुद्दीन सिद्दिकी ने मंटो को भरपूर जिया है। सच तो यह है कि फिल्म का हर कलाकार अपनी जगह फिट लगता है चाहे वह पर्दे पर कुछ पल के लिए क्यों न आया हो। रसिका दुग्गल, साहिल वैद,
इनामुलहक़,
ताहिर राज भसीन, विनोद नागपाल,
रणवीर शौरी, दिव्या दत्ता, गुरदास मान,
परेश रावल, तिलोत्तमा शोम, चंदन रॉय सान्याल, जावेद अख्तर, ऋषि कपूर,
इला अरुण, अश्वत्थ भट्ट, राजश्री देशपांडे,
मधुरजीत सरगी, शशांक अरोड़ा, पूरब कोहली... मज़ा आता है इन सब को किरदारों में ढले देख कर।
मंटो का लेखन समझने के लिए आपको पहले मंटो को समझना होता है। और मंटो को समझने के लिए आपको खुद थोड़ा-सा मंटो होना होता है। तो यह फिल्म उन्हीं लोगों के लिए है। बाकी के चाहें तो इसे वैसे ही दुत्कार सकते हैं, जैसे मंटो के रहते उन्हें और उनके लेखन को दुत्कारा गया था।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
Waooo superb review...Koi kyun na dekhe...Kyun na samjhne ki koshish kare manto ko...Thank u so much sir...
ReplyDeleteशुक्रिया मुकुल...
DeleteDeepak Ji...Maine Manto dekhi...Ye ek bejod film hai jiski tareef lafzon men bayan nahi ki jasakti...celluloid par likhi ek udaas nazm hai Manto...Maine Pakistan men bani Manto bhi dekhi lekin jo kamal Nandita Das Nawajuddin aur poori team ne kiya hai wo bemisal hai...India men ab world-class cinema banne laga hai...Aur ye behad khushi ki baat hai lekin afsos ye hai mi abhi bhi hum aesi filmon ko dekhne layak mature nahi hue hain... Error
ReplyDeleteसही फरमाया आपने... शुक्रिया, जुड़े रहिए...
Delete'पा' जी,अभी फ़िल्म देखी तो नहीं। परंतु मेरा मानना है कि ये फ़िल्म एम आम दर्शक के लिए शायद नहीं होगी। कला व साहित्य प्रेमी खास दर्शक वर्ग जो मंटो से परिचित है, जिसने मंटो को पढ़ा है। वही इस फ़िल्म को बेहतर समझ पाएगा।
ReplyDeleteबाकी आपने 3.5 सितारे लगा दिए हैं तो यकीनन नंदिता ने मेहनत की होगी। बाकी देखने पर ।
Manto Ko Maine padha h. Par ek aadh percent v Mantopan span me nahi hai. Par film dekhne ki ichcha h aur dekhunga v but pahle fir se Kali salwar toba tek Singh khol do gosht Ko padhunga.
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