-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
अगर आप विशाल भारद्वाज की फिल्मों के फैन हैं तो आपने इस फिल्म का ट्रेलर जरूर देखा होगा। और अगर आपने इस फिल्म का ट्रेलर देखा है तो आपको इंटरवल तक की फिल्म देखने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। जी हां,
इंटरवल तक की फिल्म के सारे अहम दृश्य ट्रेलर में आ चुके हैं। आप चाहें तो इंटरवल तक एक अच्छी नींद ले सकते हैं। अब रही बात इंटरवल के बाद की। तो यह हिस्सा भी आपको तभी पसंद आएगा जब आपके अंदर विशाल भारद्वाज की फिल्मों के लिए मजनू-रांझा वाली दीवानगी हो। वरना इस दौरान भी आप सो सकते हैं। अब पैसे खर्च के थिएटर में सोने ही जाना है,
तो आपकी मर्जी।
राजस्थान के एक गांव में दो बहनें हैं। बचपन से एक-दूसरे की दुश्मन। एक-दूसरे की शक्ल से भी नफरत करने वाली। बात-बात पर लड़ती-भिड़तीं। पिता की मर्जी से शादी करने की बजाय अपने-अपने प्रेमियों के साथ भाग निकलीं। पर दोनों प्रेमी निकले सगे भाई। इनका साथ यहां भी न छूटा। आगे क्या हुआ,
यह बता देंगे तो फिल्म में जो थोड़ा-बहुत मजा है,
वह भी नहीं आएगा।
राजस्थानी लेखक चरण सिंह पथिक की लघु कथा ‘दो बहनें’
को विशाल भारद्वाज ने पूरी रंगत के साथ पर्दे पर उतारा है। लेकिन दिक्कत यह है कि छह पन्नों की यह कहानी कागज़ पर जितना असर छोड़ती है,
दो सौ पन्नों की स्क्रिप्ट में तब्दील होने के बाद इसका वह असर बेहद हल्का और उथला होने लगता है। फिल्म का अंत आने तक भी यह साफ नहीं होता कि यह कहानी आखिर कहना क्या चाहती है। बस, एक हल्का-सा संदेश यह जरूर निकलता है कि आपसी रार-तकरार में लोग दूसरों की बातों में आकर किस तरह से अपना ही नुकसान कर लेते हैं। अंत में जिस तरह से इजरायल-फिलिस्तीन,
उत्तर-दक्षिण कोरिया या भारत-पाकिस्तान की बात कही गई है,
वह भी सिर्फ कहने भर की बात ही बन कर रह गई है। दृश्यों में दोहराव इसे सुस्त बनाता है और सवा दो घंटे की इसकी लंबाई अखरने लगती है।
लेकिन यह फिल्म अपने वास्तविक चित्रण के लिए देखे जाने लायक है। राजस्थान का गांव, कच्चे-पक्के मकान, रंग-बिरंगे कपड़े और उतने ही रंग-बिरंगे किरदार इसकी खासियत हैं। इस फिल्म के किरदार ही हैं जो इसके प्रति रोचकता बनाए रखते हैं। और इन किरदारों को निभाने के लिए चुने गए कलाकार भी कम असरदार नहीं रहे। बड़की राधिका मदान और छुटकी सान्या मल्होत्रा ने एक-दूसरे को जम कर टक्कर दी है। लेकिन असल मजमा तो लूटा है डिप्पर के रोल में सुनील ग्रोवर ने। सुनील उन अभागे कलाकारों में शामिल हैं जिनके भीतर टेलेंट का सागर है लेकिन फिल्म वाले उसमें से अभी लोटा भी नहीं भर पाए हैं। दोनों लड़कियों के पिता के रोल में विजय राज भी बेमिसाल रहे हैं। नमित दास,
अभिषेक दुहान और सानंद वर्मा भी अपना काम बखूबी कर गए।
सैटअप,
गैटअप,
मेकअप,
लोकेशन,
कैमरा,
कॉस्टयूम मिल कर फिल्म को यथार्थ के करीब ले जाते हैं। विशाल भारद्वाज ने फिल्म के लाउड मूड के मुताबिक बैकग्राउंड म्यूजिक भी खासा लाउड रखा है। गुलजार के गीतों और विशाल के संगीत की जुगलबंदी कुछ खास न उभर सकी। बस, रेखा भारद्वाज और सुनिधि चौहान का गाया ‘बलमा...’
ही असरदार बन सका। किरदारों से स्थानीय बोली बुलवाने का प्रयास सराहनीय लगता है लेकिन यह बोली कभी राजस्थानी तो कभी ब्रज भाषा और कभी अचानक से हरियाणवी होने लगती है।
इस फिल्म में शुरू से अंत तक एक अलग किस्म का कॉमिक फ्लेवर भी है। इसे आप कॉमेडी नहीं कह सकते, लेकिन इसे देखते हुए आप मुस्कुराते रहेंगे। बस,
अड़चन यही है कि यह मुस्कान फिल्म खत्म होते ही गायब हो जाती है। यह फिल्म आपको अपने साथ कुछ नहीं ले जाने देती-न हंसी, न संदेश। और यही इसकी सबसे बड़ी कमी है।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए
हैं।)
No comments:
Post a Comment