-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critic Reviews)
सुनंदा कोई बेचारी औरत नहीं है। न ही वह किसी की हमदर्दी चाहती है। दफ्तर या कोर्ट-रूम में होती है तो औरतों को उससे उम्मीदें होती हैं, खुद अपने साथ हुई नाइंसाफी को अपनी ताकत में तब्दील कर वह दूसरों को इंसाफ दिलाती है। बावजूद इसके वह अपने उस ज़ख्म को नहीं भूल पाती। मनोचिकित्सकों की मदद के बावजूद वह खुद से हारती रहती है जबकि उसका पति माधव हर कदम पर उसका साथ देता है। कहानी में एक पति-पत्नी के तलाक का केस भी समानांतर चलता है। इस केस में सुनंदा हार जाती है, या कहें कि जान-बूझ कर ठीक से नहीं लड़ती क्योंकि उसे लगता है कि इस बार सच उसकी क्लाइंट की तरफ नहीं बल्कि उसके पति की तरफ है। उसके पति की ही मदद से वह अपनी पीड़ा से भी उबरती है। मगर कैसे?
किशोरावस्था में बलात्कार का शिकार हुई एक औरत आखिर कैसे जीती होगी?
क्या वह सब कुछ भूल चुकी होगी, या उस आदमी से बदला लेने के लिए तड़पती होगी,
या फिर उस दर्द को रोज़ जीती-महसूस करती होगी? इस कहानी की नायिका सुनंदा के साथ स्कूली-दिनों में ऐसा ही हुआ था। आज वह शहर की तेज़तर्रार वकील है-एकदम फायरब्रांड। तलाक के मुकदमों में अपनी मुवक्किल को इंसाफ दिलाने के लिए मशहूर। लेकिन रोज़ाना रात को सपने में उसका बलात्कारी आता है, उसके साथ ज़बर्दस्ती करता है। यहां तक कि अपने पति के साथ वह बिस्तर में भी सहज नहीं रह पाती। सुलग रही है वह भीतर ही भीतर। कैसे जीतती है वह खुद अपना ही केस, कैसे दिलवा पाती है खुद को इंसाफ,
यही इसकी कहानी है।
सुनंदा कोई बेचारी औरत नहीं है। न ही वह किसी की हमदर्दी चाहती है। दफ्तर या कोर्ट-रूम में होती है तो औरतों को उससे उम्मीदें होती हैं, खुद अपने साथ हुई नाइंसाफी को अपनी ताकत में तब्दील कर वह दूसरों को इंसाफ दिलाती है। बावजूद इसके वह अपने उस ज़ख्म को नहीं भूल पाती। मनोचिकित्सकों की मदद के बावजूद वह खुद से हारती रहती है जबकि उसका पति माधव हर कदम पर उसका साथ देता है। कहानी में एक पति-पत्नी के तलाक का केस भी समानांतर चलता है। इस केस में सुनंदा हार जाती है, या कहें कि जान-बूझ कर ठीक से नहीं लड़ती क्योंकि उसे लगता है कि इस बार सच उसकी क्लाइंट की तरफ नहीं बल्कि उसके पति की तरफ है। उसके पति की ही मदद से वह अपनी पीड़ा से भी उबरती है। मगर कैसे?
अरुणा राजे को इस तरह की कहानियां कहने और बनाने का हुनर बखूबी आता है। अपनी इस फिल्म में भी वह पूरी महारत के साथ इंसानी रिश्तों और जज़्बातों को साधती हुई नज़र आती हैं। एक बलात्कार-पीड़ित को बेचारी,
दबी-कुचली हुई अबला न दिखा कर अपने और दूसरों के लिए लड़ते हुए दिखाना, उसके पति को हर कदम उसका साथ देते हुए दिखाना और जिस तरह से यह औरत अपने अतीत को झटकती है, लगता ही नहीं कि यह कोई फिल्म है। ज़िंदगी के पन्ने कुछ ऐसे ही उलटे-पलटे जाते हैं। सलाम उन प्रियंका चोपड़ा को भी जो लगातार इस तरह का सिनेमा बना रही हैं। मराठी की ‘वेंटिलेटर’ के बाद अब मराठी में ही उनका यह नया कदम काबिले-तारीफ है। कहानी में कुछ एक सिरे खुले न छोड़े जाते तो यह फिल्म और कस कर बांध सकती थी।
सुनंदा के किरदार को उषा जाधव अपनी प्रतिभा से एक अलग ऊंचाई देती हैं। उनके पास दिखाने को नाटकीय इमोशंस नहीं, बोलने को लंबे संवाद नहीं, लेकिन अपनी मौजूदगी भर से वह दर्शक को अपने होने का अहसास करा देती हैं। फिल्म खत्म होने के बाद उषा दिल में जगह बना लेती हैं। गिरीश कुलकर्णी माधव के किरदार की विशेषताओं को आत्मसात करते दिखाई देते हैं। सचिन खेडेकर,
राजेश्वरी सचदेव, रुशद राणा और बेबी मृणाल ओक का काम भी सराहनीय रहा है। इस फिल्म की धीमी रफ्तार,
इसके मीठे गीत इसे हौले-हौले दिल में उतारते हैं। कतरा-कतरा सुलगती सुनंदा की यह कहानी आपको कब प्यारी लगने लगती है,
पता ही नहीं चलता। नेटफ्लिक्स के खज़ाने में ‘वन्स अगेन’ के बाद यह एक और हीरा जुड़ा है।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए
नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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