-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critic Reviews)
अक्षय कुमार हवलदार ईशर सिंह के किरदार को न सिर्फ पूरी विश्वसनीयता के साथ निभाते हैं, बल्कि वो इस
किरदार को जीते हैं और उसे साहस और त्याग के एक प्रतीक के तौर पर खड़ा भी कर पाते हैं। अगर अक्षय अपने अभिनय से इस फिल्म को बहुत ऊपर ले जाते हैं तो यह फिल्म उन्हें बतौर अभिनेता बहुत आगे ले जाती है। ईशर के ख्यालों में आने वाली उसकी पत्नी के रोल में परिणीती चोपड़ा प्यारी और प्रभावी लगी हैं। अफगानी मुल्ला बने राकेश चतुर्वेदी अपनी अदाकारी से गहरा असर छोड़ते हैं। एक सीन में एक औरत के कत्ल होने के बाद उनके चेहरे पर जिस तरह से गुस्से का भाव अचानक अपनी जीत और सुकून के भाव में तब्दील होता है, वह बताता है कि वह कितने मंजे हुए कलाकार हैं। राकेश चतुर्वेदी का इंटरव्यू यहां पढ़ें... अश्वत्थ भट्ट और मीर सरवर अफगानी सरदारों के किरदारों में जंचते हैं। इच्छा होती है कि इन्हें थोड़ा लंबा रोल मिलना चाहिए था। अक्षय के साथी सिपाहियों की भूमिकाओं में आए कलाकारों का काम भी प्रभावी रहा है। उनके सखा बने विक्रम कोचर जमे हैं।
सारागढ़ी के किले में जब ब्रिटिश फौज के 21 सिक्ख सिपाहियों को दस हज़ार से ज़्यादा अफगान कबायलियों ने घेर लिया तो उन्होंने झुकने या भागने की बजाय लड़ने का रास्ता चुना। लड़े भी तो, न अंग्रेज़ी फौज के लिए, न किले के लिए, न अपने लिए बल्कि दुनिया को यह बताने के लिए कि हम भले ही गुलाम जिए लेकिन मरे तो आज़ाद मरे, अपनी मर्ज़ी से मरे, वीरों की मौत मरे।
12 सितंबर, 1897 के दिन अफगानिस्तान की सरहद पर सारागढ़ी के किले में जो हुआ था उसने हिन्दुस्तानी कौम को, सिक्ख कौम को, सिपाहियों की कौम को और वीरों की नस्ल का सिर पूरी दुनिया के सामने हमेशा के लिए ऊंचा कर दिया था। ब्रिटिश संसद तक में इन वीरों को श्रद्धांजलि दी गई थी। इस फिल्म को देख कर इतिहास के इस कम पढ़े गए पन्ने की तो जानकारी मिलती ही है, यह इच्छा भी दिल में जागती है कि अच्छी कहानियों का रोना रोने वाले हमारे फिल्मकार ऐसी कहानियों की तरफ क्यों नहीं झांकते। सच तो यह है कि सिर्फ पिछले दो-ढाई सौ साल का इतिहास ही खंगाल लिया जाए तो ऐसी ढेरों कहानियां सिर उठाती नज़र आएंगी जिन पर न सिर्फ जानदार और शानदार फिल्में बन सकती हैं बल्कि जिनके बारे में जान कर हमें अपने इतिहास पर फख्र हो सकता है।
हालांकि यह फिल्म पूरी तरह से ऐतिहासिक तथ्यों पर खरी नहीं उतरती है और न ही इसमें बहुत गहराई में जाकर रिसर्च की गई नज़र आती है,
लेकिन सिनेमाई पर्दे पर जैसा और जितना आवश्यक है,
उतना रंग-रस यह रचती है और हमें उस माहौल में ले जा पाने में कामयाब होती है जो 1897 के उन दिनों में उस इलाके में मौजूद था। बतौर लेखक अनुराग सिंह और गिरीश कोहली की यह कामयाबी है कि तमाम सिनेमाई छूटें लेने के बावजूद वे न सिर्फ सारागढ़ी की उस लड़ाई का विश्वसनीय चित्रण कर पाते हैं बल्कि उन 21 सिपाहियों के साथ-साथ अफगानियों के अंतस में भी झांक पाते हैं। साथ ही जिस तरह से हर थोड़ी देर में भावनाओं का छौंक लगता है, वह आपके दिल को छूता है, आपको फिल्म से जोड़ता है। निर्देशक अनुराग सिंह पंजाबी फिल्मों का बड़ा नाम हैं। हिन्दी में उनका यह पहला कदम एक बड़ी छलांग के तौर पर याद किया जाएगा। अपने कलाकारों को किरदारों में तब्दील करने से लेकर दृश्य-रचना और भाव-प्रदर्शन के अलावा तकनीकी सक्षमताओं से वह इस फिल्म को एक ऊंचे मकाम पर ले जाते हैं। शुरू में भूमिका बांधते हुए एक-एक पायदान चढ़ती हुई यह जिस ऊंचाई पर जाकर खत्म होती है, उसके लिए भी अनुराग की तारीफ होनी चाहिए। संवाद कई जगह मारक हैं और अपेक्षित असर छोड़ते हैं। फिल्म की लुक, लोकेशंस, कैमरावर्क,
एक्शन दृश्यों की तारीफ होनी चाहिए। कम्प्यूटर ग्राफिक्स व गीत-संगीत और बेहतर हो सकता था।
कहानी कहने की शैली से यह फिल्म जे.पी. दत्ता की ‘बॉर्डर’ सरीखी लगती है। लेकिन यहां अनुराग सिपाहियों के गांव में जाने की बजाय किसी के जूते,
किसी की चिट्ठी, किसी की याद, किसी की बात के ज़रिए उनकी ज़िंदगियों में झांकते हैं और दर्शकों को भी उनसे जोड़ पाते हैं। फिल्म की एक खूबी यह भी है कि यह किसी पंथ या सोच की जयकार नहीं करती बल्कि केसरी रंग को शौर्य और त्याग से जोड़ते हुए चलती है। यह देशप्रेम पर कोई लेक्चर नहीं पिलाती लेकिन इसे देख कर मुट्ठियों में पसीना और आंखों में नमी आती है और यही बतौर सिनेमा इसकी काबिलियत और कामयाबी का सबूत है।
राकेश चतुर्वेदी |
यह कोई महान फिल्म नहीं है। लेकिन यह सही विषय पर सही तरीके से बनी और सही वक्त पर आई एक फिल्म ज़रूर है। इसके नाम, इसके रंग, इसकी राष्ट्रवाद वाली टोन से काफी लोगों को बदहज़मी होगी। होने दीजिए। आप सिनेमा देखिए। क्योंकि ऐसी फिल्में ही निश्चय करके अपनी जीत तय करती हैं।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए
नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
वाह पा जी। गज़ब।
ReplyDeleteVery nice.
ReplyDeleteBadhiya
ReplyDeleteबहुत उम्मीद है इस फ़िल्म से. सही कहा आपने, विषयों की कमी नहीं है बस लोग फार्मूला फिल्मों के खांचे से बाहर निकलने का साहस नहीं कर पाते हैं. हमारा तो केवल स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास ही हज़ारों दिलचस्प और हैरतंगेज़ कहानियों से भरा पड़ा है. सच कहूँगा कि, इस फ़िल्म के आने से पहले खुद मुझे इस क़िस्से की जानकारी नहीं थी. कहीं उड़ता-उड़ता ज़िक्र किसी इतिहास की किताब में ज़रूर पढ़ा था. अब कुछ ब्लॉग पढ़े इस पर और अब फ़िल्म देखी जाएगी.
ReplyDeleteBahut achhi samikchha k chalte padne per utsukta jaga rahi
ReplyDeleteBrilliant article Dua Saab, I am very happy to read your articles, your thoughts are very much like a Historian, who always try to find out the truth behind the scenes. Your article proved that there are some other plots/stories also, which may be tried by the bollywood directors so that some good stories could be placed before the viewers.
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