-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critic Reviews)
जूनियर डाकू (ओह सॉरी, बीहड़ में बागी होत हैं, डकैत मिलते हैं पार्लामैंट में) लखना जब सीनियर बागी
मानसिंह से यह सवाल पूछता है तो उसे जवाब नहीं मिलता। कुछ देर बाद यही सवाल वह दूसरे
सीनियर बागी से पूछता है। उसे जवाब मिलता है-बागी का धरम होत है अपनी जात-बिरादरी की
रच्छा करना। तो, इस फिल्म में हर बागी अपनी
जात-बिरादरी के गैंग में रह कर अपनी जात-बिरादरी वालों की रच्छा कर रहा है और सोच रहा
है कि वह बहुत महान काम कर रहा है। लेकिन असल में वह भी जानता है कि उसकी यह ज़िंदगी
किसी नरक से कम नहीं। न खाने का पता, न हगने का। कई-कई दिन सोने को नहीं मिलता और पुलिस है कि कुत्तों की तरह सूंघती
फिरती है।
‘इश्किया, ‘डेढ़ इश्किया’ और ‘उड़ता पंजाब’ जैसी अब तक की अपनी फिल्मों से निर्देशक अभिषेक चौबे बता चुके हैं कि उन्हें धूल-मिट्टी
से सनी, ज़मीनी अहसास देने वाली
कहानियां कहना अच्छा लगता है। और इस बार तो वह चंबल के बीहड़ों में हैं जहां सिवाय धूल-मिट्टी
के कुछ है ही नहीं। फिल्म के पहले ही सीन से वह फिल्म का मूड सैट कर देते हैं। बागी
चले आ रहे हैं और सड़क पर कुचल कर मरे पड़े एक सांप के ज़ख्मों पर मक्खियां भिनभिना रही
हैं। बागियों को लगता है कि यह अपशगुन है। क्यों? एक बागी नदी में मुंह धोने जाता है तो उसे पानी में एक लड़की का चेहरा दिखता है।
क्यों? दरअसल यह पूरी फिल्म इस
तरह के ढेरों प्रतीकों से भरी पड़ी है। कहने को यह फिल्म बागियों की आपसी रंजिश के बीच
कुछ ऐसे बागियों की कहानी दिखाती है जो पुलिस से भाग रहे हैं। एक औरत एक बच्ची को इन
बागियों की मदद से अस्पताल पहुंचाना चाहती है। रास्ते में हज़ारों अड़चनें हैं। लखना
उसकी मदद करता है क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करके वह अपने लिए मुक्ति खोज सकेगा। दरअसल
यह फिल्म सीधे तौर पर कुछ नहीं कहती। जो भी कहती है, प्रतीकों और उपमाओं के ज़रिए और इसीलिए इसे समझने बैठो तो दिमाग पर भारी ज़ोर पड़ता
है। फिल्म बागियों के अंतस में जाने की कोशिश करते-करते रुक-सी जाती है। सांप खावै
चूहे को, सांप को खावै गिद्ध जैसी दुनियावी सच्चाई को दिखाती है
लेकिन असर नहीं छोड़ पाती। फिल्म में एक साथ जातिवाद, पितृसत्ता, कर्म-फल, मुक्ति-भोग आदि को इस कदर बुन-रोप दिया गया है कि कंबल
पानी में भीग कर उठाने लायक तक नहीं बचा।
एक और सीन देखिए। 26 जून,
1975 का दिन। रेडियो पर प्रधानमंत्री अपने भाषण में कहती हैं-‘राष्ट्रपति जी ने आपतकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित
होने का कोई कारण नहीं है।’ ठीक उसी समय बीहड़ के एक गांव में बागी मानसिंह घोषणा करता है-‘जे बागी मानसिंह को गैंग हेगो। जी उठाने की कोई दरकार
न है।’ क्या इन दोनों घोषणाओं या एक ही दिन होने वाली इन दोनों घटनाओं में कोई समानता
है? आप खुद तय कीजिए।
इस फिल्म को इसके लुक के लिए देखा जाना चाहिए। शुरू से अंत तक यह देहाती, ज़मीनी, धूल भरे माहौल को बेहद विश्वसनीय ढंग से दिखाती है। लेकिन यह फिल्म खुल कर कुछ
नहीं कहती है। यह जो कहना चाहती है, वह इतना उलझा हुआ है कि उभर नहीं पाता। फिल्म की सुस्त रफ्तार, लगातार होती गोलीबारी और इसके संवाद इसे आम फिल्मों से
अलग खड़ा करते हैं। लेकिन इसकी यही ‘खूबी’ इसे आम दर्शकों से परे भी ले जाती है क्योंकि यह किसी किस्म का ‘मनोरंजन’ नहीं देती और दर्शकों की खूब दिमागी कसरत करवाती है।
इस फिल्म को इसके कलाकारों के अभिनय के लिए भी देखा जाना चाहिए। रणवीर शौरी सबसे
ऊपर रहे हैं। सुशांत सिंह राजपूत,
मनोज वाजपेयी, भूमि पेढनेकर, आशुतोष राणा भी खूब दमदार दिखते हैं। लेकिन दिक्कत यह
है कि इनके किरदारों को खड़ा तो किया गया है मगर उनमें गहराई नहीं दिखती।
अनुज राकेश धवन की कैमरागिरी सिनेमा के छात्रों के लिए सबक सरीखी लगती है। सैट, लोकेशन, कॉस्टयूम, साउंड, स्पेशल इफैक्ट्स जैसी तमाम तकनीकी खूबियां फिल्म को समृद्ध बनाती हैं लेकिन इस
का बेहद कमज़ोर गीत-संगीत इसे फीका करता है।
अंत में बात फिल्म के नाम की। ‘सोनचिरैया’ एक पक्षी का नाम है। इस फिल्म का नाम यह क्यों है, इसे आप बहुत दिमाग लगा कर ही समझ सकते हैं। लेकिन फिल्म
बनाने वालों ने इसे अंग्रेज़ी में ‘सोनचिरिया’ लिखा है और हिन्दी में ‘सोनचिड़िया’। लगता है, उन्होंने सारी उर्जा फिल्म
बनाने में ही खर्च कर दी। नाम लिखे जाते समय तक कुछ बचा ही नहीं।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए
नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
क्या दमदार और कमाल की समीक्षा है सर। सचमुच ट्रेलर से ये कुछ और ही लग रही थी। समीक्षा से बहुत कुछ धुंध साफ हुई है। हालांकि मनोज वाजपेयी मेरे पसंदीदा हैं और आशुतोष राणा भी। लेकिन इनके सामने रणवीर शौरी को अपनी अलग छवि बनाते देखना सुखद होगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteशुक्रिया... आभार...
DeleteGreat review 👍
ReplyDeleteशुक्रिया... आभार...
DeleteVery nice review.
ReplyDeleteशुक्रिया... आभार...
Deleteबढ़िया भईया..👌
ReplyDeleteमतलब दिमाग को घिसना पड़ेगा फ़िल्म देखते वक़्त. अब दिमाग घिस कर भी फ़िल्म अपनी बात पहुंचाने में समर्थ हो तो भी बात बने. खैर, कभी कभी निर्देशक भी भटक जाता है बाकी सब अच्छा होने के बावजूद. फिर भी देखनी बनती है फ़िल्म. समीक्षा जानदार है जी.
ReplyDeleteशुक्रिया... आभार...
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