Friday 29 March 2019

रिव्यू-ओस में भीगी ‘नोटबुक’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critic Reviews)
इंसानी भावनाओं की कहानियां धरती के किसी भी कोने में किसी भी ज़ुबान में कही जाएं, इंसानी मन को एक जैसी ही लगती हैं। 2014 में थाईलैंड में बनी फिल्म टीचर्स डायरी के इस रीमेक को देख कर यही लगता है। श्रीनगर से दूर वूलर झील के बीच एक हाऊसबोट पर अपने मरहूम पिता के शुरू किए स्कूल में मास्टर बन कर पहुंचे कबीर को उससे पहले वहां पढ़ा रही टीचर फिरदौस की डायरी मिलती है। उसे पढ़ते-पढ़ते वह फिरदौस को जानने लगता है, महसूस करने लगता है, उससे प्यार तक करने लगता है। अगले साल वह चला जाता है और फिरदौस लौट आती है। उसी डायरी में लिखी कबीर की बातों से वह भी उससे प्यार करने लगती है। अंत में इन दोनों का मिलन होता है या नहीं, यह फिल्म में ही देखें तो बेहतर होगा।

एक-दूसरे को देखे बिना, मिले बिना प्यार कर बैठने की एक उम्दा कहानी बरसों पहले सिर्फ तुम में आ चुकी है जिसमें नायक-नायिका एक-दूसरे को चिट्ठियां लिखते हैं। लेकिन यहां तो दोनों के दरम्यां कोई संवाद ही नहीं है। सिर्फ डायरी पढ़ कर एक-दूसरे को जानने, समझने, महसूस करने और प्यार कर बैठने का यह अंदाज़ बहुत प्यारा लगता है। हर पल यह लगता है कि ये दोनों कैसे एक-दूजे को मिलेंगे, मिलेंगे भी या नहीं। लेकिन यह सिर्फ इन दोनों की ही कहानी नहीं है। इसे बड़ी ही खूबसूरती के साथ दस-बारह साल पुराने कश्मीर में सैट किया गया है। नायक-नायिका की बैक-स्टोरीज़, कश्मीर के हालात, वहां के बच्चों की पढ़ाई, स्कूल की हालत जैसी बहुत सारी बातें इसमें इस तरह से पिरोई गई हैं कि एक रूखी कहानी पर बनी होने के बावजूद यह फिल्म आपको नीरस नहीं लगती। लेखक शारिब हाशमी की कलम तारीफ मांगती है।

तारीफ के हकदार निर्देशक नितिन कक्कड़ भी कम नहीं हैं। मूल कहानी से इतर वह छोटे-छोटे प्रसंगों से रोचकता बनाए रखते हैं। यह फिल्म आंखों को बहुत सुहाती है। कश्मीर की तरावट इससे पहले कभी किसी फिल्म में इससे ज़्यादा खूबसूरत नहीं दिखी। कई फ्रेम तो ऐसे हैं कि दिल मचलने लगता है। रश्क होता है वहां रहने वालों पर। मन करता है कि ज़मीं की यह फिरदौस (जन्नत) जल्द पाक-साफ हो तो जाकर इसे छुआ जाए। मनोज कुमार खटोई का कैमरा सिनेमा के पर्दे पर पेंटिंग बनाता है-बेहद खूबसूरत और नाज़ुक पेंटिंग्स। गीत-संगीत के ज़रिए यह फिल्म कानों को भी अच्छी लगती है। और इसमें जो बच्चे दिखाए गए हैं... माशाल्लाह, इतने प्यारे, मासूम बच्चे कि दिल जीत लें। खासतौर से दुआ नाम वाली वो बच्ची...!

नायक ज़हीर इक़बाल और नायिका प्रनूतन बहल (अदाकारा नूतन की पोती, अभिनेता मोहनीश बहल की बेटी) ज़्यादा नहीं जमते। अभी इन दोनों को ही अपने भाव-प्रदर्शन पर ध्यान देना होगा। अच्छी कहानियां और अच्छे निर्देशक मिले तो ये दोनों निखर जाएंगे।

यह फिल्म हर किसी के मतलब की नहीं है। थिएटर में मसाला मनोरंजन तलाशने वालों के मतलब की तो कत्तई नहीं। हालांकि यह कोई आर्ट-हाऊस सिनेमा भी नहीं है। यह अहसासों का सिनेमा है। मगर कमियां भी हैं इसमें। कुछ सीन अखरते हैं, कुछ फिल्मी-से लगते हैं। नायक-नायिका के प्यार की उष्मा कम लगती है। यह फिल्म छूती तो है, कचोटती नहीं। इसे देखते हुए यह भी लगता है कि कुछ और गहराई इसे ज़्यादा असरदार बना सकती थी। कुछ और, कुछ और की कमी खलती है। लगता है कि यह ओस में भीगी हुई है। नम तो है लेकिन प्यास नहीं बुझा पाती।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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