Thursday, 28 March 2019

रिव्यू-‘द शोले गर्ल’ देखनी चाहिए? जी गुरु जी...!

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critic Reviews)
इस फिल्म के नाम से अगर आप यह सोच रहे हैं कि इसमें आपको हेमा मालिनी की ज़िंदगी दिखाई जा रही है तो ज़रा रुकिए। यह कहानी है दरअसल उस स्टंट-बाला की जिसने अपने वक्त की हर छोटी-बड़ी अभिनेत्री की डुप्लिकेट बन कर कैमरे के सामने उनके लिए स्टंट किए, अपनी जान जोखिम में डाली, चोटें खाईं। लेकिन लोगों ने फिल्म देख कर उसकी नहीं बल्कि उन अभिनेत्रियों की ही तारीफ की। लोग उसकी तारीफ करते भी तो कैसे? कोई उसके नाम से वाकिफ था, चेहरे से। शोलेमें हेमा मालिनी के लिए स्टंट करने के बाद उसे शोले गर्लका नाम मिला भी तो सिर्फ इंडस्ट्री के भीतर। सच कहूं तो इस फिल्म के आने तक मैं भी नहीं जानता था कि इस बहादुर औरत का नाम है-रेशमा पठान।

लेकिन यह सिर्फ रेशमा पठान की कहानी नहीं है। यह उस जीवट की कहानी है जो साठ के दशक के आखिर में मुंबई के एक निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार की लड़की दिखाती है। घर में खाने को कुछ नहीं, बीमार-लाचार बाप और मां बेचारी कितना करे। तब उस लड़की ने सबसे पहले अपने भीतर एक लड़ाई लड़ी। फिर परिवार से, मौहल्ले से, समाज से और फिल्म इंडस्ट्री वालों से भी जहां अभी तक हीरोइन के बॉडी-डबल का काम भी लड़के ही करते रहे थे। रेशमा ने अपने साहस से इंडस्ट्री की पहली स्टंट-वुमैन होने का खिताब और स्टंट मैन एसोसिएशन का कार्ड भी पाया। कभी डरी नहीं। जब भी फाइट-मास्टर ने उससे पूछा-कर लेगी? तो उसका एक ही जवाब था-जी, गुरु जी।

एक स्टंट-वुमैन की इस बायोपिक को लिखने, इस पर फिल्म बनाने का विचार ही अपने-आप में सुहाना है। शरबानी देवधर और फैज़ल अख्तर ने एक बायोपिक के तमाम ज़रूरी तत्वों को इसमें दिखाने की ईमानदार कोशिश की है। कहानी में बहुत सारे ऐसे-वैसेमसाले डालने की तमाम गुंजाइशों को दरकिनार करते हुए इन्होंने बड़े ही सधेपन के साथ सिर्फ मतलब की बातें परोसी हैं। निर्देशक आदित्य सरपोतदार ने भी रेशमा की ज़िंदगी के सफर को सलीके से दिखाया है। एक बड़ी तारीफ के हकदार इस फिल्म के निर्माता भी हैं जिन्होंने लीक से अलग इस विषय को उठाने की हिम्मत दिखाई।

बिदिता बाग ने रेशमा के किरदार को निभाया नहीं जिया है, घूंट-दर-घूंट पिया है। रेशमा की मजबूरी, दर्द, कसक, साहस, कामयाबी के हर भाव को बिदिता अपने चेहरे पर ला पाती हैं। बतौर अभिनेत्री, इसे उनका अब तक का सर्वश्रेष्ठ काम कहा जा सकता है। अज़ीम गुरु जी बने चंदन रॉय सान्याल बेहद प्रभावी तरीके से अपने किरदार में समाते हैं। काम बाकी कलाकारों का भी उम्दा है। खासतौर से रेशमा के पिता बने आदित्य लखिया का। फिल्म के अंत में आज भी सक्रिय रेशमा को देखना सुखद लगता है। यह इच्छा भी होती है कि यह फिल्म ज़ी5’ की बजाय थिएटरों में रिलीज़ की गई होती तो ज़्यादा दर्शकों तक पहुंच पाती।

फिल्म 'गोलमाल अगेन' में रेशमा पठान
इस फिल्म को और बेहतर लिखा जा सकता था। रेशमा की कहानी आपको छूती ज़रूर है लेकिन उसका संघर्ष रोंगटे खड़े नहीं करता, उसका दर्द आंखें नम नहीं करता, आपके भीतर कसक नहीं जगाता। यादगार संवादों की कमी भी खलती है। फिल्म की लो-बजट प्रोडक्शन वैल्यू भी इसकी रंगत को सादा बनाती है। अंत और ज़ोरदार बन सकता था। बावजूद इसके यह एक देखने लायक फिल्म है। खासतौर से इसलिए एक तरफ यह हम दर्शकों को कैमरे के पीछे के अंधेरों में ले जाती है तो दूसरी तरफयह हमारे फिल्म वालों को अहसास दिलाती है कि अपने घर में झांको, कहानियां के ढेर मिलेंगे। समझ गए ...? जी गुरु जी...!
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार 
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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