आखिर वही हुआ जिसकी बहुतेरे लोगों को आशंका थी। जोया अख्तर की ‘गली ब्वॉय’ ऑस्कर की दौड़ से बाहर हो गई। ‘अंतर्राष्ट्रीय फीचर फिल्म’ (जिसे पिछले साल तक विदेशी भाषा की फिल्म कहा जाता था) की इस दौड़ में कुल 91 फिल्मों को ऑस्कर अकादमी के सदस्यों ने परखा और 16 दिसंबर को इनमें से अगले राउंड के लिए चुनी गईं 10 फिल्मों की घोषणा की गई।
अब जो दस फिल्में ऑस्कर की दौड़ में बची हैं उनमें से पहली है चेक गणराज्य की ‘द पेंटिड बर्ड’ जो 1965 में लिखे गए इसी नाम के उपन्यास पर आधारित एक ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म है। एस्टोनिया की ‘ट्रुथ एंड जस्टिस’ वहां पर 1926 से 1933 के बीच पांच खंडों में रची गई इसी नाम की पुस्तक पर आधारित है। फ्रांस की ‘लेस मिसरेबल्स’ 2005 में पेरिस में हुए दंगों की पृष्ठभूमि पर बनी एक शॉर्ट फिल्म पर आधारित फिल्म है। हंगरी की ‘दोज हू रिमेन्ड‘ दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एक शिविर में मिले एक डॉक्टर और एक 16 साल की किशोरी की कहानी दिखाती है जिन्होंने अपनों को खोया है। उत्तरी मैक्डोनिया की फिल्म ‘हनीलैंड’ एक सुदूर गांव में शहद की मक्खियां पालने वाली युवती के जीवन में झांकती है। पौलेंड से आई ‘कार्प्स क्रिस्टी’ की कहानी हैरतअंगेज तौर पर बरसों पहले हमारे यहां बनी देव आनंद की ‘गाइड’
जैसी है। आपराधिक पृष्ठभूमि वाला एक युवक जेल से छूटता है और लोग उसे पादरी समझ लेते हैं। वह भी इस छवि को जीने लगता है। रूस की फिल्म ‘बीनपोल’ 1945 के वक्त में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अपने तीन साल के बच्चे के साथ घर लौटती एक युवती की कहानी दिखाती है। सेनेगल से आई फिल्म ‘अटलेंटिक्स’ को प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में पुरस्कृत किया जा चुका है। ‘पैरासाइट’ दक्षिण कोरिया से आई एक ब्लैक कॉमेडी फिल्म है और वहीं स्पेन की ‘पेन एंड ग्लोरी’ को प्रतिष्ठित ‘टाइम’
पत्रिका द्वारा साल की दस सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में चुना गया है।
यहां गौरतलब है कि ऑस्कर के दूसरे राउंड में पहुंचीं ये दसों फिल्में दुनिया भर के प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में खासी देखी और सराही जा चुकी हैं जबकि अपनी ‘गली ब्वॉय’ सिवाय बर्लिन फिल्म समारोह के कहीं नहीं गई थी। हालांकि यह सच है कि मुंबई की गलियों के दो रैप-गायकों डिवाइन और नाजी की यह कहानी बहुत उम्दा तरीके से कही गई है लेकिन यह भी सही है कि इसे देखते हुए 2002 में आई अमेरिकन फिल्म ‘8 माइल’ याद आती है। और अब जबकि इस साल भी ऑस्कर हमारे लिए अधूरा ख्वाब बन चुका है तो हर साल ऑस्कर की दौड़ से बाहर होते जाने के बाद क्या अब भी हमारे फिल्मकार वक्त का यह इशारा नहीं समझेंगे कि यदि उन्हें विश्व-पटल पर अपनी धाक जमानी है तो उन्हें और ज्यादा गहराई में जाकर अपनी फिल्मों के लिए ऐसी कहानियां चुननी होंगी जो बाकी दुनिया वालों को उन्हें पसंद करने पर मजबूर कर दें? ऐसी कहानियां जो नितांत भारतीय हों और जो अपने कहन और कलेवर से ऑस्कर वालों के दिलोदिमाग पर छा जाएं। लेकिन कहां हैं ऐसी कहानियां? हमारे फिल्म वाले अपने कुओं से बाहर निकलें तो उन्हें कुछ दिखे।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी.
से भी जुड़े हुए हैं।)
चयन समिति ने tummbad,सोनचिड़िया, गली गुलीयां , लाल कप्तान आदि अच्छी फिल्मो के बजाय गली बॉय को भेजा यह जानते हुए भी कि कंटेंट कॉपीड है। पूरा दोष चयन समिति का है।
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