-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
इतिहास के पन्नों से निकली किसी कहानी को फिल्मी पर्दे पर उतारना आसान नहीं होता। ‘जोधा अकबर’ में इस काम को साध चुके आशुतोष गोवारीकर ‘खेलें हम जी जान से’ और ‘मोहेंजो दारो’ में नाकामी झेलने के बाद अगर फिर से इतिहास के समंदर में कूदे हैं तो उनके साहस की तारीफ होनी चाहिए। भले ही इस बार भी उनके हाथ में सच्चा मोती न लगा हो लेकिन उन्होंने निराश भी नहीं किया है। सच तो यह है कि इस फिल्म को फिल्म की बजाय इतिहास के किसी अध्याय की तरह देखा जाए तो यह उस दौर के माहौल की तस्वीर उकेर पाने में कामयाब दिखती है।
अठारहवीं सदी के मध्य में जब मुग़ल बिल्कुल कमज़ोर हो चुके थे और मराठे दिल्ली पर भी भारी पड़ते थे तब रोहिल्ला सरदार नजीब-उद्-दौला ने मराठों को हराने के लिए अफगानिस्तान के शहंशाह अहमद शाह अब्दाली को दिल्ली के तख्त का लालच देकर बुलाया था। और इतिहास गवाह है कि घर वालों की लड़ाई का फायदा हमेशा बाहर वालों ने ही उठाया है। अब्दाली और मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ के बीच 14 जनवरी, 1761 को पानीपत में हुई लड़ाई (जिसे पानीपत की तीसरी लड़ाई भी कहा जाता है) के इर्द-गिर्द सिमटी इस कहानी में मराठों की ज़बर्दस्त हार हुई थी।
इस फिल्म की पहली सफलता यह है कि यह उस दौर के इतिहास को हमें बड़ी आसानी से समझाती है। इतिहास की किताबों को रट कर थिएटर में जाने वालों को छोड़ दें तो यह एक आम दर्शक की जिज्ञासाओं को शांत करने में कामयाब रही है। इस फिल्म की दूसरी और सबसे बड़ी सफलता यह है कि यह पानीपत की इस लड़ाई के बरअक्स युद्ध की व्यर्थता और युद्ध से होने वाले उस विनाश को प्रभावी ढंग से दिखा पाती है जो हमारे भीतर युद्ध के प्रति नफरत पैदा करता है। राजाओं-रजवाड़ों के आपसी संघर्षों और षड्यंत्रों को भी यह असरदार तरीके से दिखा पाती है।
लेकिन इस फिल्म में कमियां भी हैं। सबसे बड़ी कमी तो यह है कि यह जिन किरदारों को दिखाती है उनमें से ज़्यादातर को कायदे से खड़ा नहीं कर पाती। उस दौर के बड़े-बड़े राजा इसमें निरीह-से लगते हैं। सदाशिव राव भाऊ के निर्णय कई जगह बचकाने और अविश्सनीय लगते हैं। और सबसे बड़ी कमी यह कि,
अपने नाम ‘पानीपत’
के साथ यह ‘द ग्रेट बिट्रेयल’ (महान विश्वासघात)
का जो पुछल्ला जोड़ती है उसे कायदे से साबित नहीं कर पाती। किसने किया विश्वासघात...? किसके साथ...? और जिस तरह से यह अंत तक सदाशिव को एक महानतम योद्धा साबित करने पर तुली रहती है, वह भी असरदार नहीं लगता। सदाशिव और पार्वती के बीच की रूमानियत भी अगर छू जाती तो भी इस फिल्म का पलड़ा भारी हो जाता, लेकिन यह फिल्म इस मोर्चे पर भी कमज़ोर रही है।
सदाशिव राव बाजीराव के भतीजे थे। फिल्म में बाजीराव और मस्तानी बाई के बेटे शमशेर की भी एक बड़ी भूमिका है। इस नाते से आप इसे संजय लीला भंसाली की ‘बाजीराव मस्तानी’ का सीक्वेल भी कह सकते हैं क्योंकि इस फिल्म में भी वही पुणे है, वही शनिवार वाड़ा,
वही मराठी रंग-ढंग, कुछ वैसी ही प्रेम-कहानी,
वही राजनीति, वही युद्ध। लेकिन यह फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ की तरह ऊंचाइयां नहीं छूती। इसकी बड़ी वजह जहां इसकी स्क्रिप्ट का हल्कापन और कमज़ोर चरित्र-चित्रण है वहीं कलाकारों का चयन भी इसके आड़े आया है। अर्जुन कपूर ने सदाशिव राव के रोल के लिए भरपूर मेहनत की है, बहुत परिपक्वता दिखाई है, लेकिन रणवीर सिंह सरीखा पागलपन उनमें नहीं है। संजय दत्त ने अब्दाली के रोल को भले ही विश्वसनीय बनाया हो लेकिन यह किरदार दमदार ढंग से लिखा ही नहीं गया। ज़ीनत अमान या पद्मिनी कोल्हापुरे को देखना सुखद भले लगे लेकिन उनके लिए किरदार भी तो कायदे के हों। हां, नजीब-उद्-दौला बने मंत्रा खूब जमे। शुजा-उद्-दौला बने कुणाल कपूर बेहद प्रभावी रहे। इब्राहिम खान गार्दी के रोल में नवाब शाह ने असर छोड़ा। और इन सब से ऊपर रहीं कृति सैनन। अपने अब तक के सबसे शानदार अभिनय के साथ उन्होंने अपने प्रति उम्मीदों का पहाड़ खड़ा कर लिया है।
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी बहुत प्रभावी है। युद्ध के दृश्य प्रभावी रहे हैं। स्पेशल इफैक्ट्स कहीं बहुत अच्छे तो कहीं एकदम कमज़ोर हैं। सैट्स के साथ भी यही हाल रहा है। जावेद अख्तर के लिखे गीतों के बोल भाते हैं और अजय-अतुल का संगीत भी। इस फिल्म को देख कर बतौर निर्देशक आशुतोष गोवारीकर की मेहनत को सलाम करने का मन करता है और उन्हें यह सलाह देने का भी, कि जंग के मैदान में उतरने से पहले अपने सारे हथियारों की धार तेज़ कर लेनी चाहिए। ज़ंग लगे हथियारों से जंग नहीं जीती जाती।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं
समीक्षा अच्छे से लिखी गयी है । फ़िल्म देखने की उत्सुकता बढा दी पा जी आपने । फ़िल्म तो देखनी पड़ेगी । आपकी कलम का जादू चल गया .......
ReplyDeleteBadhiya review.
ReplyDeleteTrailer dekhne ke baad hamaare andesha se zara behtar hi darshaai hai aapne film .
Matlab jitnaa aapne kahaa .. utnaa bhi maujood hai film meN dekhne laayak.., to ek baar film dekhne ka risk le hi liya jaae .
Badhiya review.
ReplyDeleteTrailer dekhne ke baad hamaare andesha se zara behtar hi darshaai hai aapne film .
Matlab jitnaa aapne kahaa .. utnaa bhi maujood hai film meN dekhne laayak.., to ek baar film dekhne ka risk le hi liya jaae .
सच कहा ... जंग लगे हथियारों से जंग नहीं लड़ी जाती..!👌... जो लोग इतिहास की किताबो को रटकर..😊😊😊... ईमानदाराना रिव्यू👍👍
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