आपके दोस्त का एक्सीडैंट हो गया है। आप कहें तो मैं आपको हॉस्पिटल तक छोड़ दूं...? और फिर मिलती है उस लड़की की लाश-बुरी तरह से मसली हुई, कुचली हुई।
अपने मौजूदा समाज की यह कड़वी और स्याह तस्वीर है जिसमें दूसरों पर भरोसा करने वाली लड़कियां का सिर्फ भरोसा ही नहीं टूटता, उनका ज़मीर,
इज़्ज़त, शरीर, वजूद, सब कुचला जाता है उस ‘मर्द जात’ द्वारा जिसे गुरूर है अपने श्रेष्ठ होने पर। जिसे यकीन है कि वह औरतों से कहीं बेहतर है, खासतौर से उन औरतों से जिनके पास अपना दिमाग है, अपनी आवाज़ है, जो स्मार्ट हैं, या होना चाहती हैं। ऐसी औरतें,
चाहें घरों में हों, दफ्तरों में, सड़कों पर या सोसायटी में, ये ‘श्रेष्ठ’ मर्द मौका मिलते ही उसे दबा देना चाहते हैं, चुप करा देना चाहते हैं, खत्म कर देना चाहते हैं।
यह फिल्म ऐसी ही कहानी दिखाती है जिसमें एक सनकी नौजवान को चिढ़ है ऐसी औरतों से। कानून को ठेंगे पर रखने वाले इस युवक को पकड़ने के लिए निकली शहर की एस.पी. शिवानी शिवाजी रॉय को हर पल चकमा देता यह शख्स शातिर है, क्रूर है और मर्द होने की ईगो से लबालब भरा हुआ है। लेकिन शिवानी भी मर्दानी है और ज़ाहिर है कि उसे पकड़ ही लेती है। आखिरी का वह सीन प्रासंगिक है जब विजयी होने के बाद शिवानी एक मंदिर के बाहर बैठी है और पीछे दीवार पर महिषासुर का मर्दन करती दुर्गा की पेंटिंग बनी है। समाज के असुरों का वध करने के लिए हमें ऐसी दुर्गाएं और शिवानियां तो चाहिएं ही, ऐसे मर्द भी चाहिएं जो इनकी राह का रोड़ा बनने की बजाय इनके रास्ते के पत्थर हटाने का काम करें।
अपने झोले में कई सार्थक चीज़ें लिए हुए है यह फिल्म। शिवानी सख्त है, कड़क है लेकिन बेहद नरम भी। अपने सहकर्मियों के सुख-दुख का ख्याल रखती है, दया करना उसके स्वभाव का हिस्सा है। औरतों को दोयम और कमतर मानने वालों को जवाब देना उसे बखूबी आता है। होमवर्क करके निकलना उसकी आदत है। अपराधी के दिमाग में घुस कर सोचती है वह। फिल्म बताती है कि अगर पुलिस वाले पूर्वाग्रहों से परे रह कर चतुराई से काम लें तो कोई अपराधी उनसे नहीं बच सकता। फिल्म एक बड़ी सीख लड़कियों को भी देती है कि अनजान लोगों पर खट से भरोसा मत करो, इंसान के भेष में यहां राक्षस भी हो सकते हैं।
पहले ही सीन से फिल्म निशाना साधती है और अंत तक कमोबेश उसे साधे भी रखती है। पहले चंद मिनटों में ही आपकी आंखें नम होती हैं,
आपको अपने समाज की दशा पर, इस समाज में लड़कियों की दुर्दशा पर और उससे भी बढ़ कर अपनी शराफत भरी बेबसी पर क्रोध आता है। यहां से फिल्म आपके भीतर पैठना शुरू करती है और अंत तक आते-आते यह एक ज़रूरी फिल्म बन कर आपको उद्वेलित कर चुकी होती है। यह इस कहानी की जीत है। इसे लिखने-बनाने वाले गोपी पुथरन की जीत है। ठीक है कि बीच में यह बहुत सारा औरत-मर्द वाला भाषण पिलाती है लेकिन ये भाषण पिलाए जाने भी ज़रूरी हैं-तब तक, जब तक कि सारे मर्द यह न मान लें कि वे सिर्फ एक एक्स्ट्रा क्रोमोसोम की वजह से ‘मर्द’ बने हैं और सिर्फ इसी वजह से वे औरतों से श्रेष्ठ नहीं हो जाते।
रानी मुखर्जी बेदाग अभिनय करती दिखाई देती हैं। पीड़ा, दर्द, नरमाई, सख्ताई,
भरोसे, चतुराई जैसे तमाम भावों को वह निश्छलता से व्यक्त कर पाती हैं। सनकी विलेन का किरदार निभाने वाले विशाल जेठवा के आने से अभिनय की दुनिया और समृद्ध हुई है। इंस्पेक्टर भारती बनीं श्रुति बापना खूब जमी हैं। यह सही है कि फिल्म की स्क्रिप्ट में काफी सारा ‘फिल्मीपन’
है,
इसमें दिखाई गई घटनाएं फिल्मी हैं, अपराधी की हरकतें फिल्मी हैं, पुलिस के काम का तरीका फिल्मी है, फिल्म का क्लाइमैक्स तो ज़बर्दस्त फिल्मी हैं। लेकिन इस फिल्म में उठाई गई बातें कड़वी हैं, दिखाए गए हालात कड़वे हैं। इन्हें देखा और समझा जाना चाहिए-हर किसी द्वारा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
सटीक रिव्यू सर
ReplyDeleteसटीक रिव्यू सर
ReplyDeleteAapke review ka wait kar raha tha... Ab dekhunga.
ReplyDelete👍👍👍👍
ReplyDeleteघर से होमवर्क करके निकलती है..अपराधी के दिमाग़ में घुसकर सोचती है। आपका ये रिव्यू आपके मन की बेचैनी का भी पता देता है कहीं न कहीं आपको ये बातें कचोटती भी हैं रिव्यू की लंबाई बता रही हैं कि इसपर आपका रवय्या पेशेवराना न होकर आपने इसे पूरे विवेक और दिल से लिखा है आपने सही कही भले पुलिस और उसकी कार्रवाही फिल्मी हो मगर मुद्दा हक़ीक़त से लबरेज़ था। आप रिव्यू में अपने साथ साथ हमारी भी बात कहते लगे । आपको सलाम !💐
ReplyDeleteघर से होमवर्क करके निकलती है..अपराधी के दिमाग़ में घुसकर सोचती है। आपका ये रिव्यू आपके मन की बेचैनी का भी पता देता है कहीं न कहीं आपको ये बातें कचोटती भी हैं रिव्यू की लंबाई बता रही हैं कि इसपर आपका रवय्या पेशेवराना न होकर आपने इसे पूरे विवेक और दिल से लिखा है आपने सही कही भले पुलिस और उसकी कार्रवाही फिल्मी हो मगर मुद्दा हक़ीक़त से लबरेज़ था। आप रिव्यू में अपने साथ साथ हमारी भी बात कहते लगे । आपको सलाम !💐
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