-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
होटल मैनेजमैंट के कॉलेज में लड़का-लड़की मिलते हैं, उनमें दोस्ती होती है और फिर मोहब्बत। दर्शक के मन में सवाल उठता है कि एक रोमांटिक कहानी पर ‘यह साली आशिकी’ जैसा निगेटिव नाम क्यां? लेकिन जल्दी ही कहानी की परतें खुलने लगती हैं और पता चलता है कि जो दिख रहा है,
उसके पीछे की कहानी कुछ और है। इंटरवल आते-आते यह रोमांटिक से थ्रिलर फिल्म में तब्दील हो जाती है और इंटरवल के बाद एक रिवेंज ड्रामा। आखिर है क्या इसमें?
रोमांटिक कहानियों वाली सॉफ्टनेस और थ्रिलर कहानियों वाली बेचैनी, दोनों हैं इसमें। इस किस्म की कहानी का पर्दे पर आना ही सुखद है क्योंकि यह रोमांटिक कहानियों के लिए तय हो चुके चरित्रों को बदले हुए अंदाज़ में दिखाती है। हालांकि बहुतेरी जगह यह पहले से ही अहसास करा देती है कि आगे क्या होने वाला है और साथ ही कुछ एक जगह इसकी स्क्पि्ट के धागे भी ढीले पड़ते दिखाई देते हैं लेकिन इसे लिखने वाले वर्धन पुरी और चिराग रूपारेल की प्रतिभा इसमें साफ झलकती है। क्लाइमैक्स में बहुत ज्यादा ड्रामा होने और चीज़ों के अचानक बहुत आसान होते चले जाने के बावजूद यह फिल्म आपको बांधे रखती है और यही इसकी सफलता है।
नायक वर्धन पुरी दिग्गज अभिनेता स्वर्गीय अमरीश पुरी के पोते हैं। अपनी इस पहली फिल्म में वह भरपूर आत्मविश्वास दिखाते हैं। चेहरे के भावों और शरीर की भंगिमाओं पर थोड़ा और नियंत्रण उन्हें उम्दा अभिनेताओं की कतार में खड़ा कर सकता है। थोड़ा-सा काम उन्हें अपनी आवाज पर भी करना होगा। नायिका शिवालिका ओबेरॉय न सिर्फ खूबसूरत हैं बल्कि अच्छा अभिनय भी करती हैं। अच्छे रोल चुन कर वह अपनी राह आसान बना लेंगी। जॉनी लीवर के बेटे जेस्सी लीवर बहुत बढ़िया रहे। कुछ देर के लिए आए सतीश कौशिक भी जंचे। रुसलान मुमताज का काम साधारण रहा। गीत-संगीत फिल्म को सहारा देता नज़र आया। बतौर निर्देशक चिराग रूपारेल की तारीफ भी ज़रूरी है जिन्होंने इस उलझे हुए विषय को काफी परिपक्वता से उठाया और कमोबेश संभाले भी रखा। एक ख्याल यह भी आता है कि इस कहानी को वह फ्लैश-बैक में कहते तो क्या यह ज़्यादा असरदार होती?
इस फिल्म को देखते हुए यह सोच कर हैरानी होती है कि इतनी अलग तरह की कहानी भी होती है वरना हम लोग तो रोमांटिक कहानियों के नाम पर उसी घिसी-पिटी पटरी पर चलने के आदी हो चुके हैं। लेकिन यह देख कर अफसोस होता है कि इतनी अलग और बढ़िया कहानी होने के बावजूद यह फिल्म खराब मार्केटिंग और खराब प्रचार के कारण नाकामी के दायरे में सिमट कर रह गई। काश,
इसे बनाने वालों ने थोड़ी चतुराई के साथ इसे प्रचारित और रिलीज़ किया होता तो यह कहीं ज़्यादा चर्चित,
कहीं ज़्यादा कामयाब हो सकती थी।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी
जुड़े हुए हैं।)
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