अच्छा बताइए कि आपको मुंबई से कैलाश जाना हो तो आप क्या करेंगे? अब यह मत कहिएगा कि कैलाश
तो चीन में है,
पासपोर्ट-वीज़ा लगेगा। आप यह बताइए कि जाएंगे कैसे? कम से कम दिल्ली तक तो
हवाई जहाज पकड़ेंगे न?
लेकिन नहीं हमारी हीरोइन ने मुंबई से ही कार बुक कराई है। वो भी तीन महीने पहले, ठीक उस दिन के लिए जिस
दिन के बारे में उसे पता है कि मर्डर के आरोप में जेल में बंद उसका प्रेमी बाहर आ जाएगा।
तीन महीने में...! सच्ची...! ऊपर से ये दोनों अपने साथ इतने छोटे बैग लेकर जा रहे हैं
जिनमें चार कच्छे-बनियान भी ढंग से न आएं। इससे बड़ा बैग तो दिल्ली की लड़कियां मैट्रो
ट्रेन में लेकर घूमती हैं। हां, जेल से बाहर आते समय उस उल्लू, ओह सॉरी, उस प्रेमी के हाथ में एक
गिटार और एक उल्लू का पिंजरा ज़रूर है। इस लड़की को कोई मारना चाहता है। पर जब तक अपना
टैक्सी-ड्राईवर संजू बाबा उसके साथ है, किस की मज़ाल, जो उसे छू भी सके।
किसी फिल्म का नाम उसके किसी किरदार के नाम पर हो तो अमूमन दो बातें होती हैं। पहली यह कि या तो उसे बनाने वालों के ज़ेहन में ही यह बात साफ नहीं है कि वे क्या कहना चाहते हैं। दूसरी यह कि उन्हें तो पता है लेकिन वे चाहते हैं कि दर्शक खुद समझे कि असल में वे क्या कहना चाहते हैं। यहां पर दूसरी वाली बात है। नितिन कक्कड़ अपनी अब तक की फिल्मों (फिल्मीस्तान, मित्रों, नोटबुक,
जवानी जानेमन) से इतना तो बता ही चुके हैं कि कहानी में से मानवीय संवेदनाओं को बारीकी से पकड़ कर उन्हें पर्दे पर उकेरने का गुर उन्हें बखूबी आता है। उनकी यह फिल्म बेशक उनका अब तक का सबसे मैच्योर काम है।
-दीपक दुआ...
इरफान सबके चहेते अदाकार थे। उनका काम देख चुके लोग जानते हैं कि उन्होंने कुछ भी कभी ‘नॉनसेंस’ नहीं किया होगा। अपने काम से ऐसी छवि कम ही कलाकार गढ़ पाते हैं कि उनका नाम या चेहरा सामने आते ही कुछ सार्थक काम का अहसास होने लगे। इरफान से मिल चुके या उन्हें कहीं बातचीत करते देख चुके लोग अक्सर इस बात को चिन्ह्ति करते रहे हैं कि वह असल ज़िंदगी में भी कभी ‘नॉनसेंस’ नहीं हुए। इस किताब से यह धारणा और मज़बूत होती है जिसमें वरिष्ठ फिल्म आलोचक व पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज ने इरफान के साथ हुए समय-समय पर हुए अपने कुछ साक्षात्कारों को संकलित किया है।
एक छोटी बच्ची ने पायलट बनने का सपना देखा। पिता ने हर कदम उसका साथ दिया। पायलट नहीं बन पाई तो उसे एयरफोर्स में जाने को कहा। लेकिन क्या हर कदम पर दुनिया उस लड़की का स्वागत ही करेगी? अपने समाज की तो आदत ही रही है लड़कियों के पंख कतरने की। लेकिन गुंजन लड़ी,
लड़ी तो जीती, जीती तो ऐसे कि मिसाल बन गई।
भरतनाट्यम-भारत का डांस। हमारा ‘अपना’ डांस। लेकिन अगर कोई ‘पराया’ भी इसे करना चाहे तो हम उसे रोकते नहीं हैं। ऐसी ही एक ‘पराई’ लड़की मरियम और उसके पिता के संघर्षों की कहानी है यह। मां की असमय मौत के बाद किशोरी मरियम का मन हुआ कि वह भरतनाट्यम सीखे। पिता सलीम ने रोका नहीं, उलटे साथ दिया। लेकिन आड़े आ गए तंग सोच वाले वे लोग जिन्होंने समाज की हर बात का ठेका ले रखा है। हाशिम सेठ के इशारे पर सलीम को उसके ‘अपनों’ ने ही दुत्कारना शुरू कर दिया। उधर जयप्रकाश जैसे लोग भी भला कहां खुश थे एक ‘पराई’ लड़की को यह डांस करते देख कर।