-दीपक दुआ...
मां वैष्णो के भवन को दूर से देख कर ही हमारे भीतर नई उर्जा का संचार होने लगा
था। कुछ ही देर में यह नया वाला रास्ता पुराने रास्ते पर मिल गया। यहां फिर से हमारे
सामान और हमारी जांच हुई। यहां स्थित श्राइन बोर्ड की दुकान से प्रसाद के थैले खरीदे। (पिछला आलेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें) जिन यात्रियों को जानकारी नहीं होती वे कटरा
की दुकानों से प्रसाद,
नारियल आदि महंगे दामों पर खरीद कर 14 किलोमीटर की चढ़ाई में ढोते रहते हैं जबकि भवन से ठीक
पहले ही सरकारी दुकान है जहां उचित दामों पर प्रसाद मिल जाता है। यहां एक और छोटी-सी
दुकान है जहां पर माता के ऊपर चढ़ाए गए चोले, चुन्नियां, छत्र आदि भी बिकते हैं। यहीं हमने दर्शन की उस पर्ची
पर नंबर डलवाया जो हमने कटरा में बनवाई थी।
रात के नौ बजने को थे। कड़कती ठंड में ठंडे पानी में नहा कर अब हमें दर्शन के लिए
जाना था। काफी लोग यहां खा-पीकर सो जाते हैं और बाद में दर्शन करने जाते हैं जबकि मैंने
हमेशा ही ‘जिस मकसद को आए हैं, पहले उसे पूरा करें, बाकी काम बाद में’ की सोच
रखी है। सो हम उस तरफ बढ़ चले जहां पुरुषों और स्त्रियों के लिए अलग-अलग स्नानागार बने
हुए हैं। यहां नलों से आते बर्फीले पानी को पहली बार छूने पर तो शरीर क्या, आत्मा भी सिहर उठती है
लेकिन एक बार हिम्मत करके नल के नीचे बैठ जाओ तो जो तृप्ति मिलती है, उसका बयान नहीं हो सकता।
मन भर दर्शन पेट भर भोजन
नहा कर नए कपड़े पहने,
साथ लाए सामान को क्लॉक-रूम में जमा कराया और दर्शन के लिए लाइन में लग गए। याद
रहे कि भवन के अंदर सिवाय पैसे, रुमाल और क्लॉक-रूम के लॉकर की चाभी के आप ‘कुछ भी’ नहीं
ले जा सकते। लाइन में भीड़ बहुत कम थी सो, दस ही मिनट के अंदर हम लोग उस पवित्र गुफा में जा पहुंचे
जिसके दर्शनों की आस मन में लिए लगभग एक करोड़ यात्री हर साल यहां आते हैं। कुछ पलों
बाद दर्शन कर,
प्रसाद ले हम बाहर आ चुके थे और ज़ाहिर है कि अब हमारा इरादा सिर्फ और सिर्फ पेट-पूजा
करने का था। श्राइन बोर्ड के रेस्टोरेंट में इतनी रात को भी ताज़ा और गर्मागर्म खाना
मिला। यहां से फारिग होकर क्लॉक-रूम से अपना सामान लिया तो घड़ी में रात के 11 बज रहे थे। थकान और नींद
के मारे बुरा हाल हो चुका था। बुकिंग वाले कमरे तो हमें मिले नहीं थे सो हम उस इमारत
में जा पहुंचे जहां बहुत सारे कमरों और गलियारों में लोग कंबल लेकर सोए हुए थे। यहां
पर सोने के लिए कोई पैसे नहीं लगते और कंबल भी कंबल-स्टोर से मुफ्त में मिल जाते हैं।
बस हर कंबल के लिए 100 रुपए जमा करवाने पड़ते
हैं और कंबल वापस करने पर वही नोट वापस मिलता है जो आपने जमा करवाया हो। हमने पहले
तो एक हज़ार रुपए देकर दस कंबलों पर कब्जा किया और फिर जगह तलाशनी शुरू की लेकिन कहीं
भी इतनी जगह नहीं मिली जहां हम चार लोग एडजस्ट हो पाते। यहां तक कि हमारे देखते ही
देखते सीढ़ियों के बीच वाली जगह पर भी लोग कंबल बिछा कर लेटने लगे थे। परेशान मन से
हम लोग बाहर खुली हवा में आ गए। तभी पत्नी ने कहा-सुनो, यहीं क्यों न सो जाएं? यहां, आसमान तले...?
आसमान तले बीती रात
वैसे अगर हम तलाश करते तो हमें कहीं और भी जगह मिल जाती। लेकिन उनींदे बच्चे, सामान, दस कंबल और हम भी थके हुए, सो प्रभु-इच्छा समझ कर
हमने वहीं बाहर उस इमारत के मेन-गेट के बाईं तरफ कंबल बिछाने शुरू कर दिए। हमें देख
कर एक-दो और परिवार भी वहीं आ गए। साफ-सुथरी जगह थी। पहले पहुंचने के कारण हमने कोना
पकड़ लिया सो,
हमारे दो तरफ दीवार थी। लेकिन ठंड लगातार बढ़ती जा रही थी। दस कंबलों में से तीन-तीन
कंबल नीचे बिछा कर ऊपर दो-दो कंबल लेकर हम लेट गए। लेकिन शरीर पर जैकेट, सिर पर गर्म टोपियां और
ऊपर से दो-दो कंबल होने के बावजूद ठंड रुक नहीं रही थी। कुछ देर बाद मैं उछल कर खड़ा
हुआ और बोला कि कुछ कंबल और लेकर आता हूं। नीचे पहुंचा तो पता चला कि कंबल-स्टोर तो
रात 12 बजे बंद हो जाता है। अब...?
अचानक से मिली मदद
सोच ही रहा था कि क्या किया जाए कि तभी वहां एक सज्जन आए और कहने लगे कि उन्हें
छह कंबल वापस करने हैं क्योंकि वह अभी वापसी के लिए निकल रहे हैं। तुरंत उन्हें छह
सौ रुपए पकड़ा कर उनसे कंबल और पर्ची लपकी और वापस ऊपर आ गया। अब आसमान तले हम थे और
हमारे व आसमान के बीच में पांच-पांच कंबल। कुछ ही देर में निद्रा देवी ने कृपा की और
फिर आंख सीधे सुबह ही खुली। इम्तिहान की घड़ी निकल चुकी थी और कदाचित हम उसमें पास भी
हो चुके थे। मन में उत्साह और तन में स्फूर्ति भरपूर थी। 16 कंबल वापस किए, फ्रैश हुए, कुछ पेट-पूजा की और ठीक
8 बजे हम भैरों घाटी की तरफ
चल पड़े। आज पहली बार हैलीकॉप्टर में बैठने की उमंगें दिल में हिलोरें लेने लगी थीं। पढ़िएगा अगली किस्त में, इस पर क्लिक कर के।
भारी भीड़ के कारण हम भी रात में वहाँ नहीं रुके थे
ReplyDeleteमैं अब तक छह बार वैष्णो देवी के दरबार में गया हूं। पर हर बार दर्शन करके वापस लौट आता हूं। कभी भी भवन पर रुका नहीं।
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